-- सूरज तन झुलसा रहा, दुनिया है बेहाल। गुलमोहर का हो गया, बूटा-बूटा लाल।। -- जितनी गरमी पड़ रही, उतना निखरा रूप। गुलमोहर खिलने लगा, खा कर निखरी धूप।। -- सड़क किनारे है खड़ा, केसरिया को धार। सब लोगों को बाँटता, मुलमोहर उपहार।। -- गरम हवाएँ पी रहा, खड़ा अनोखा सन्त। जेठ मास में आ गया, मानो पुनः बसन्त।। -- दुनियाभर को दे रहा, गुलमोहर उपदेश। खुश हो करके मानिए, कुदरत का आदेश।। -- सुख-दुख दोनों में रहो, हरदम एक समान। जैसे सुख-दुख झेलता, निर्धन श्रमिक-किसान।। -- कुदरत ने जो कुछ दिया, उस पर है सन्तोष। है गरमी के साथ में, बारिश का उद्घोष।। -- |
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सोमवार, 18 अप्रैल 2022
दोहे "गुलमोहर खिलने लगा" (डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
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बेहतरीन प्रस्तुति।
जवाब देंहटाएंवाह!!!
जवाब देंहटाएंगुलमोहर पर बहुत ही लाजवाब दोहे।
दुनियाभर को दे रहा, गुलमोहर उपदेश।
जवाब देंहटाएंखुश हो करके मानिए, कुदरत का आदेश।।
मान गए गुलमोहर चचा !
वाह!! गुलमोहर पर सुंदर सृजन... सच में प्रकृति अपने हर रूप में कई शिक्षाएँ देती है.. यह हमारे ऊपर है किसे किस तरह से लेते हैं...
जवाब देंहटाएंसुन्दर प्रस्तुति.
जवाब देंहटाएंवाह ! बेहतरीन
जवाब देंहटाएंबहुत ही सुंदर सर।
जवाब देंहटाएंसराहनीय सृजन।
सादर