A Poison Tree a poem by William Blake अनुवाद:डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' |
-ःचम्पू काव्यः- मित्र से नाराज होकर पूछता मैं “क्रोध” से जिसका नही कुछ ओर है ना कोई जिसका छोर है घुस गया अन्तस में मेरे आज कोई चोर है शत्रु से नाराज होकर पूछता हूँ मैं यही क्यों उगाया क्रोध का उसने विषैला वृक्ष है भय जगाया व्यर्थ का भयभीत मेरा वक्ष है रात में वो अश्रु बनकर नयन में आता सदा सुबह होने पर वही मुस्कान बनता सर्वदा अश्रु और मुस्कान धोखा दे रहे इन्सान को रात-दिन बन छल रहे स्वप्निल-सरल अरमान को यह चमक उस सेव की मानिन्द है रात के तम में चुराया था जिसे इक शत्रु ने उल्लसित मेरा हृदय यह हो गया है देखकर आज चिर निद्रा में खोया है हमारा मित्रवर छाँव में विषवृक्ष की सोया हमारा मित्रवर |
William Blake (1757 - 1827) |
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें
केवल संयत और शालीन टिप्पणी ही प्रकाशित की जा सकेंगी! यदि आपकी टिप्पणी प्रकाशित न हो तो निराश न हों। कुछ टिप्पणियाँ स्पैम भी हो जाती है, जिन्हें यथासम्भव प्रकाशित कर दिया जाता है।