मास फरवरी आ गया, बढ़ा सूर्य का ताप। उपवन में कलियाँ-सुमन, करते क्रिया-कलाप।। पिघल रहे हैं ग्लेशियर, दरक रहे हैं शैल। नजर न आते नगर में, कच्चेघर-खपरैल।। दिन ज्यों-ज्यों बढ़ने लगा, चढ़ने लगा खुमार। मौसम सबको बाँटता, वासन्ती उपहार।। चहक उठी है वाटिका, महक उठा है रूप। भँवरे गुंजन कर रहे, खिली-खिली है धूप।। जैसे-जैसे आ रहा, प्रेमदिवस नज़दीक। वैसे-वैसे हो रहा, मौसम भी रमणीक।। जोड़ों पर चढ़ने लगा, प्रेमदिवस का रंग। रीत पुरानी है वही, किन्तु नये हैं ढंग।। कर्कश सुर में गा रहे, कागा भौंडे गीत।। नये साज के शोर में, बदल गया संगीत।। बरस रहा शृंगार है, सरस रहा मधुमास। जड़-चेतन को हो रहा, मस्ती का आभास।। |
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रविवार, 5 फ़रवरी 2023
दोहे "कच्चेघर-खपरैल" (डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
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