(चित्र में- (बालक) मेरा छोटा पुत्र विनीत, मेरे कन्धे पर हाथ रखे बाबा नागार्जुन और चाय वाले भट्ट जी, पीछे- आज से वर्ष पूर्व का खटीमा का बस स्टेशन। जहाँ दुर्गादत्त भट्ट जी की चाय की दुकान थी, साथ में वह भी खड़े हैं) बाबा नागार्जुन की इतनी स्मृतियाँ मेरे मन और मस्तिष्क में भरी पड़ी हैं कि एक संस्मरण लिखता हूँ
तो दूसरा याद आ आता है। मेरे व वाचस्पति जी के एक चाटुकार मित्र थे। जो वैद्य
जी के नाम से मशहूर थे। वे अपने नाम के आगे ‘निराश’ लिखते थे। अच्छे शायर माने जाते
थे। आजकल तो दिवंगत हैं।
परन्तु धोखा-धड़ी और झूठ का व्यापार इतनी सफाई व सहजता से करते थे कि पहली बार
में तो कितना ही चतुर व्यक्ति क्यों न हो उनके जाल में फँस ही जाता था। बात सन् 1989 की है, उन दिनों बाबा
नागार्जुन का प्रवास खटीमा में ही था। यहाँ नवनिर्मित राजकीय डिग्री कॉलेज में वाचस्पति जी हिन्दी
के प्राध्यापक थे। इसलिए विभिन्न कालेजों की हिन्दी विषय की कापी उनके पास
मूल्यांकन के लिए आती थीं। उन दिनों चाँदपुर के कालेज की कापियाँ उनके पास आयी
हुईं थी। तभी की बात है कि दिन में लगभग 2 बजे एक सज्जन वाचस्पति जी का घर पूछ रहे थे। उन्हें वैद्य जी टकरा गये और वाचस्पति जी के नीचे ही "राजीव बर्तन स्टोर" पर बैठ कर उससे बातें करने लगे। बातों-बातों में यह निष्कर्ष निकला कि उनके पुत्र का हिन्दी का प्रश्नपत्र अच्छा नही गया था। इसलिए वो उसके नम्बर बढ़वाने के लिए किन्ही वाचस्पति प्रोफेसर के यहाँ आये हैं। वैद्य जी ने छूटते ही कहा- "प्रोफेसर
वाचस्पति तो मेरे बड़े अच्छे मित्र हैं। लेकिन वो एक नम्बर बढ़ाने के एक सौ
रुपये लेते हैं। आपको जितने नम्बर बढ़वाने हों, हिसाब लगा कर उतने रुपये दे
दीजिए।" बर्तन वाला राजीव यह
सब सुन रहा था। उसकी दूकान के ऊपर ही वाचस्पति जी का निवास था और वह उनका परम
भक्त था। राजीव चुपके से अपनी दुकान से उठा और पीछे वाले रास्ते से आकर वाचस्पति जी से जाकर बोला- ‘‘सर जी ! आप भी 100 रु0 नम्बर के
हिसाब से ही परीक्षा में नम्बर बढ़ा देते हैं क्या?’’
और उसने अपनी
दुकान पर हुई पूरी घटना बता दी। वाचस्पति जी ने राजीव
से कहा- "जब वैद्य जी! चाँदपुर से आये व्यक्ति का पीछा छोड़ दें, तो उस व्यक्ति को मेरे पास बुला
लाना।" इधर वैद्य जी ने 10 अंक बढ़वाने के लिए चाँदपुर वाले व्यक्ति से एक हजार रुपये ऐंठ लिए थे। उस समय 1000 रुपये अच्छी-खासी धनराशि मानी जाती थी। बाबा नागार्जुन उन दिनों खटीमा में आये हुए थे और चारपाई पुर बैठे हुए, राजीव
और वाचस्पति जी की बातें ध्यान से सुन रहे थे। थोड़ी ही देर में "वैद्य जी" वाचस्पति जी के घर आ धमके। इसी की आशा हम लोग भी कर रहे थे। पहले तो
औपचारिकता की बातें होती रहीं। फिर वैद्य जी असली मुद्दे पर आ गये और कहने लगे
कि मेरे छोटे भाई चाँदपुर में रहते हैं। सुना है कि आपके पास चाँदपुर के कालेज
की हिन्दी की कापियाँ जँचने के लिए आयीं है। आप प्लीज मेरे भतीजे के 10 नम्बर
बढ़ा दीजिए। वाचस्पति जी ने कहा- ‘‘वैद्य जी मैं यह व्यापार नही करता
हूँ।’’ तब तक राजीव चाँदपुर वाले व्यक्ति को भी लेकर आ गया। हम लोग तो वैद्य जी से
कुछ बोले नही। परन्तु बाबा नागार्जुन ने वैद्य जी की क्लास लेनी शुरू कर दी।
सभ्यता के दायरे में जो कुछ भी कहा जा सकता था बाबा ने खरी-खोटी के रूप में वो
सब कुछ वैद्य जी को सुनाया। अब बाबा ने चाँदपुर
वाले व्यक्ति से पूछा- ‘‘आपसे इस दुष्ट ने कुछ लिया तो नही
है।’’ तब 1000 रुपये वाली बात
सामने आयी। बाबा ने जब तक उस
व्यक्ति के रुपये वैद्य जी से वापिस नही करवा दिये तब तक वैद्य जी का पीछा नही
छोड़ा। बाबा ने वैद्य जी से मुखातिब होकर कहा- ‘‘वैद्य जी अब तो मुझे यह आभास हो रहा है
कि तुम जो कविताएँ सुनाते हो वह भी कहीं से पार की हुईं ही होंगी। साथ ही वैद्य
जी को हिदायत देते हुए कहा- "अच्छा साहित्यकार बनने से पहले अच्छा व्यक्ति बनना बहुत जरूरी
है।" |
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शुक्रवार, 24 फ़रवरी 2023
संस्मरण "साहित्यकार से पहले अच्छे व्यक्ति बनिए" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
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