जब से ज़ालिम हुआ जमाना
उलझ गया सब ताना-बाना
चारा-पत्थर और कोयला
बना आज लोगों का खाना
छल-फरेब की इस दुनिया में
नहीं रहा अब ठौर-ठिकाना
सिसक रहीं हैं राग-रागिनी
रोता है संगीत पुराना
कोयल का सुर मौन हुआ है
काग सुनाता जाता गाना
आपाधापी में दौलत की
अपना भी लगता बेगाना
“रूप” रंग से सबको उल्फत
है किसने दिल को पहचाना?
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गुरुवार, 17 अक्तूबर 2013
"है किसने दिल को पहचाना" डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री ‘मयंक’)
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चारा-पत्थर और कोयला
जवाब देंहटाएंबना आज लोगों का खाना
छल-फरेब की इस दुनिया में
नहीं रहा अब ठौर-ठिकाना
खूबसूरत,.भावपूर्ण लाजवाब रचना
Nice post
जवाब देंहटाएंसत्य की कड़वाहट लिये पंक्तियाँ
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर .... छल-फरेब की इस दुनिया में....नहीं रहा अब ठौर-ठिकाना
जवाब देंहटाएंनमस्ते भैया
सिसक रहीं हैं राग-रागिनी
जवाब देंहटाएंरोता है संगीत पुराना
नेहरु का अब नहीं ज़माना ,
नीतिराज में गूंगाबाना।
सुन्दर प्रस्तुति।
सुन्दर प्रस्तुति।
जवाब देंहटाएंबिदक रहा है आम आदमी।
सेकुलर सांड फिरे मस्ताना।
आपाधापी में दौलत की
जवाब देंहटाएंअपना भी लगता बेगाना
sahi kaha
बहुत ही अच्छी रचना।
जवाब देंहटाएंबहुत सुंदर.
जवाब देंहटाएंबहुत ही खुबसूरत और प्यारी रचना..... भावो का सुन्दर समायोजन......
जवाब देंहटाएंसत्य कहती सार्थक प्रस्तुति
जवाब देंहटाएंराम चंद्र कह गये सिया से
जवाब देंहटाएंयाद आ रहा है वह गाना
कौआ खायेगा जब मोती
हंस चुनेगा कच्चा दाना
यही समय है उस कलियुग का
रहा नहीं अब शेष बताना