जूती-टोपी बनी सहेली।
सुलझ न पाये कठिन पहेली।।
कर्णधार को रास न आया,
टोपी को उसने बिसराया।
टोपी होती एक झमेला,
कहता गांधी जी का चेला।
मैं आजादी का उन्मादी,
उसने सदा गुलामी झेली।
सुलझ न पाये कठिन पहेली।।
मैं कैसे टोपी अपनाता,
जगह-जगह हूँ जूते खाता।
टोपी शुचिता की पहचान,
टोपी है भारत की शान।
इसीलिए मैं नहीं पहनता,
जिससे टोपी रहे नवेली।
सुलझ न पाये कठिन पहेली।।
मैं गड़बड़-घोटाला करता,
रिश्वत से अपना घर भरता।
मेरी सुख-सुविधा सरकारी,
कुर्सी से है नातेदारी।
वोट-नोट के लिए हमेशा,
खुल जाती हैं बँधी हथेली।
सुलझ न पाये कठिन पहेली।।
तन भी काला, मन भी काला,
रोज निगलता नर्म निवाला।
साँठ-गाठ करके गैरों से,
पीट रहा घर का दीवाला।
माना उजड़ गये रजवाड़े,
मेरी है आबाद हवेली।।
सुलझ न पाये कठिन पहेली।।
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सोमवार, 7 अक्तूबर 2013
"टोपी-कठिन पहेली" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
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बढ़िया प्रस्तुति-
जवाब देंहटाएंनवरात्रि की मंगल कामनाएं-
सादर
सुंदर टोपी ! :)
जवाब देंहटाएंwaah waah kya baat hai , sundar geet ,bahut sundar , sarthak post , badhai aapko
हटाएंबहुत खूबसूरत रचना |
जवाब देंहटाएंसच कहा आपने अब तो असली टोपी पहनने वाला कोई नहीं ..अब तो टोपी पहनाने वालों की भरमार हैं ...
जवाब देंहटाएंबहुत बढ़िया प्रस्तुति
बढ़िया प्रस्तुति |
जवाब देंहटाएंसुंदर कविता. आभार.
जवाब देंहटाएंटोपी में ये पाल रहे हैं, काले धन के तोते।
जवाब देंहटाएं