“लौट चलें अब गाँव”
(दोहा पंचशती)
प्राचीन और अर्वाचीन का अनूठा संगम
कभी-कभी अनायास ही छन्द शास्त्र के पण्डितों
से भेंट हो जाती है। दिल्ली में पिछले सप्ताह किसी पुस्तक के विमोचन में मेरी
भेंट सुस्थापित साहित्यकार डॉ. सुरेशचन्द्र शर्मा से हुई। वो बिल्कुल मेरी बगल
में ही मंचासीन थे। बातों-बातों में पता लगा कि आप पद्य ही नहीं अपितु गद्य के
भी सिद्धहस्त लेखक हैं। आपने मुझे पाँच सौ दोहों के संकलन “लौट चलें अब गाँव” की
प्रति भेंट की। पुस्तक को सांगोपांग पढ़ने के उपरान्त विचार आया कि क्यों न पहले
“लौट चलें अब गाँव” पर ही कुछ शब्द लिखूँ और कम्प्यूटर के की-बोर्ड पर मेरी
अँगुलियाँ चलने लगीं।
हिन्दी साहित्य शोध संस्थान नई दिल्ली द्वारा
प्रकाशित “लौट चलें अब गाँव” (दोहा पंचशती) 102 पृष्ठों की पाँच सौ दोहों की पेपरबैक
पुस्तक है। जिसका मूल्य दो सौ बीस रुपये मात्र है।
विद्वान कवि डॉ. सुरेशचन्द्र शर्मा ने अपने
दोहा संकलन में जन जीवन से जुड़े गाँव और शहर, राजनीति और भ्रष्टाचार, नीति और
व्यवहार तथा प्रकृति से सम्बन्धित अनुभव की कसौटी पर कसे हुए उत्कृष्ट दोहों को स्थान
दिया है। मेरा मानना है कि कवित्त, गीत-गजल और काव्य की अन्य विधाओं में यह
गुंजाइश रहती है कि कवि अपनी बात को मुखड़े अन्तरे, अशआरों या मतला-मक्ता में
अपने उद्गार को व्यक्त कर सकता है लेकिन दोहा एक ऐसा छन्द है जिसमें दोहाकार को
चार चरणों अर्थात् दो पंक्तियों में ही अपनी बात को कहना होता है। “लौट चलें अब
गाँव” में दोहाकार अपने दोहों में अपनी पूरी बात रखने में पूरी तरह सफल रहा है।
न सरस्वती वन्दना न ईश आराधन तथा बिना
समर्पण के कवि डॉ. सुरेशचन्द्र शर्मा ने बिना किसी औपचारिक के अपने दोहों का
श्रीगणेश किया है। उनकी दृष्टि में हर एक शब्द माँ शारदे का स्तवन है। प्राचीनता
से अर्वाचीनता की दौड़ में यह उचित ही प्रतीत होता है। तेजी से भागते युग और समय
में आज पाठकों के पास भी समाय का अभाव है अर्थात वह सीधे-सीधे आपकी बात को
आत्मसात् करना चाहते हैं।
संकलन का शुभारम्भ करते हुए दोहाकार
लिखता है-
“बरसों से हूँ
शहर में, लेकिन हूँ अनजान।
जीवन ठहरा ताल
सा, नहीं जान-पहचान।।
--
आँगन बड़ा उदास
था, छोड़ा था जब गाँव।
रोबोटों का शहर
है, मन को मिले न छाँव।।
--
आये शहरी धाम
में, बरगद के सुख छोड़।
यहाँ अनैतिक
काम की, लगी हुई है होड़।।
--
अरे बावले लौट
चल, बिखरे तेरे ख्वाब।
यमपाशित यह नगर
है, नहीं बची है आब।।”
राजनीति और भ्रष्टाचार पर चोट करते हुए आहत
हुए दोहाकार ने बहुत ही बेबाक होकर अपने दोहे रचे हैं। उदाहरण स्वरूप कुछ दोहे
देखिए-
“उल्लू का
दरबार है, राजनीति की जात।
खुल्लमखुल्ला
बँट रही, अपनों को सौगात।।
--
हे त्रपुरारी
देश में, शिशुपालों की फौज।
भलमनसाहत रो
रही, मारपीट की मौज।।
--
लोकतन्त्र के
नाम पर, आज भीड़ का राज।
मांस नोच कर खा
रहे, नेता बनकर बाज।।
--
सिंहासन पर आज
है, शकुनी का अधिकार।
इसीलिए तो पाप
की, होती जय-जयकार।।”
नीति और व्यवहार पर दोहाकार ने अपने
अन्दाज में अपनी बात कुछ इस प्रकार से कही है-
“बचपन कैसा
बेरह, शीघ्र गया वो भाग।
झुलसी कोमल
भावना, भूला तुतला राग।।
--
समय पखोरू उड़
चला, ढलता वय-दिनमान।
पौरुष किन्नर
हो गया, टूटा किरण मचान।।
--
विषधर दंशित कर
रहे, सारा आज समाज।
किन्नर सा
व्यवहार कर, खोई सबने लाज।।
--
वक्त डराकर कह
रहा, करो हार स्वीकार।
आसा कहती कान
में, फिर से करो विचार।।”
प्रकृति के बारे में दोहाकार ने लिखा है-
“नभ में फैली
चाँदनी, बिखरा घट सितचूर्ण।
लगे छोड़ने
नीड़ खग, समझ रैन को पूर्ण।।
--
रवि बरसाये आग
अब, जलता पूरा देश।
पीपल-पल्लव लाल
हैं, क्रूर धरा का वेश।।
--
मुकुट पहनकर आम
हैं, व्याकुल और अधीर।
कोकिल क्यों
आती नहीं, बात बहुत गम्भीर।।
--
टेढ़े-मेढ़े बह रहे, नाले भर मन दर्प।
दादुर भय से
काँपता, समझ भूल से दर्प।।”
कवि के भावों और अनुभावों से ओत-प्रोत दोहा
संकलन “लौट चलें अब गाँव” के बारे में मैने यह अनुभव किया है इसमें संकलित सभी दोहों का भावपक्ष बहुत प्रबल है। किन्तु कलापक्ष के दृष्टिकोण से कुछ दोहे छन्द
की कसौटी पर खरे नहीं है। शायद प्रूफ-रीडिंग कवि के द्वारा नहीं किया गया
है और टंकणकर्ता ने टंकण में बहुत गल्तियाँ कर दीं है। कुछ दोहे तो ऐसे हैं जो
मात्राओं की दृष्टि से तो सही हैं मगर टंकणकर्ता ने अपने मन से शब्दों को समुचित
स्थान पर टाइप नहीं किया है।
जहाँ सूर, कबीर, तुलसी, जायसी, नरोत्तमदास इत्यादि
समस्त कवियों ने अपने साहित्य के माध्यम से समाज को कुछ न कुछ नया देने का
प्रयास किया है। वहीं विद्वान दोहाकार डॉ. सुरेशचन्द्र शर्मा ने “लौट चलें अब
गाँव” में भी अपने पाँच सौ दोहों में नवीनतम प्रयोग किये हैं। मुझे पूरा विश्वास
है कि निकट भविष्य में इस संकलन का दूसरा संस्करण बिल्कुल शुद्धरूप में पाठकों
के सामने आयेगा।
मैंने अनुभव किया है डॉ. सुरेशचन्द्र
शर्मा के दोहे बहुत मार्मिक धारदार और पैने हैं जो दिल पर सीधा वार करते हैं। आशा है पाठक इस दोहाकृति से अवश्य लाभान्वित होंगे और समीक्षकों की दृष्टि में भी यह
उपादेय सिद्ध होगी।
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ-
डॉ. रूपचन्द्र
शास्त्री ‘मयंक’
समीक्षक एवं
साहित्यकार
टनकपुर-रोड,
खटीमा
जिला-ऊधमसिंहनगर
(उत्तराखण्ड) 262308
सम्पर्क-7906360576,
7906295141
ई-मेल- roopchandrashastri@gmail.com
वेब साइट-
http://uchcharan.blogspot.com/
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सार्थक और सटीक समीक्षा ...
जवाब देंहटाएंदोहे जो दिल को छु लें और समय को बयान करें ... अच्छी पुस्तक और अच्छी समीक्षा ...
बधाई सुरेशचन्द्र जी को ...
सच में गांव की बात ही कुछ और होती हैं। सुंदर और सटिक समीक्षा।
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