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जाने कैसे भूल हो गई, अन्तर्मन को पढ़ने में
कल्पनाएँ निर्मूल हो गईं, पाषाणों को गढ़ने में
हार नहीं मानी मैंने, संघर्षों के तूफानों से
राहें ही प्रतिकूल हो गईं, सोपानों को चढ़ने में
उठती-गिरती लहरों से, नौका को सदा बचाया है
भरी जवानी धूल हो गई, तूफानों से लड़ने में
स्वागत किया हमेशा दिल से, आगत और अनागत का
नदियाँ सूखी गूल हो गई, अरमानों को मढ़ने में
'रूप' कभी भी रास न आया, नादानों को फूलों का
बातें ऊल-जलूल हो गईं, गुलदानों को जड़ने में
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गुरुवार, 4 अप्रैल 2019
ग़ज़ल "तूफानों से लड़ने में" (डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
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नये साल की नयी सुबह में, कोयल आयी है घर में। कुहू-कुहू गाने वालों के, चीत्कार पसरा सुर में।। निर्लज-हठी, कुटिल-कौओं ने,...
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कुहरे ने सूरज ढका , थर-थर काँपे देह। पर्वत पर हिमपात है , मैदानों पर मेह।१। -- कल तक छोटे वस्त्र थे , फैशन की थी होड़। लेक...
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सपना जो पूरा हुआ! सपने तो व्यक्ति जीवनभर देखता है, कभी खुली आँखों से तो कभी बन्द आँखों से। साहित्य का विद्यार्थी होने के नाते...
जवाब देंहटाएं'रूप' कभी भी रास न आया, नादानों को फूलों का
बातें ऊल-जलूल हो गईं, गुलदानों को जड़ने में !
सार यही है जीवन का। सादर प्रणाम।
हार नहीं मानी मैंने, संघर्षों के तूफानों से
जवाब देंहटाएंराहें ही प्रतिकूल हो गईं, सोपानों को चढ़ने में
सुंदर भावों से सुसज्जित .... वाह