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सबको अपना आज सुहाना लगता है।
छिपा हुआ हर राज सुहाना लगता है।। -- उडने को आकाश पड़ा है, पुष्पक भी तो पास खड़ा है, पंछी को परवाज सुहाना लगता है। छिपा हुआ हर राज सुहाना लगता है।। -- राजनीति की सनक चढी है, लोलुपता की ललक बढ़ी है, काँटों का भी ताज सुहाना लगता है। छिपा हुआ हर राज सुहाना लगता है।। -- धानों पर आ गई बालियाँ, हरे रंग में रँगी डालियाँ, कुदरत का हर काज सुहाना लगता है। छिपा हुआ हर राज सुहाना लगता है।। -- गुञ्जन करना और इठलाना, भीना-भीना राग सुनाना, मलयानिल का साज सुहाना लगता है। छिपा हुआ हर राज सुहाना लगता है।। -- तन-मन ने ली है अँगड़ाई, कञ्चन सी काया गदराई, पर्वों का आगाज सुहाना लगता है। छिपा हुआ हर राज सुहाना लगता है।। -- टेसू दहका अंगारा सा, आशिक बहका आवारा सा, बासन्ती अन्दाज सुहाना लगता है। छिपा हुआ हर राज सुहाना लगता है।।
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रविवार, 6 सितंबर 2020
गीत "कुदरत का हर काज सुहाना लगता है" (डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
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सबको अपना आज सुहाना लगता है।
जवाब देंहटाएंछिपा हुआ हर राज सुहाना लगता है।।
बहुत ही सुंदर बिल्कुल सही फरमाया आदरणीय शास्त्री जी
बहुत सुन्दर
जवाब देंहटाएंसबको अपना आज सुहाना लगता है।
जवाब देंहटाएंछिपा हुआ हर राज सुहाना लगता है।।
वाह!!!
बहुत सुन्दर मनभावन सृजन।
वाह ! मानव चरित्र को प्रकृति के साथ जोड़कर एक बेहतरीन संदेश।
जवाब देंहटाएंव्यंग्य! और साथ ही सुंदर प्रकृति चित्रण सुंदर गीत ।
जवाब देंहटाएंबहुत सुंदर और सटीक प्रस्तुति।
जवाब देंहटाएं'छिपा हुआ हर राज सुहाना लगता है।'-यह पंक्ति रचना को अलंकृत करते आभूषण सरीखी है।... बहुत ही सुन्दर रचना!
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