-- नभ में सूरज गुम हुआ, हाड़ कँपाता शीत। दाँतों से बजने लगा, किट-किट का संगीत।। -- दिवस हुए छोटे बहुत, लम्बी हैं अब रात। खाने में अब बढ़ गया, भोजन का अनुपात।। -- कोयल और कबूतरी, सेंक रहे हैं धूप। बिना नहाये लग रहा, मैला उनका रूप।। -- अच्छा लगता है बहुत, शीतकाल में घाम। खिली गुनगुनी धूप में, सिक जाता है चाम।। -- छाया है कुहरा सघन, थर-थर काँपे गात। सत्याग्रह से कृषक के, विकट हुए हालात।। -- छोड़ दीजिए कृषक पर, खेती का कानून। नहीं किसानों को रुचा, सरकारी मजमून।। -- खेतीहर-मजदूर हैं, धरती के भगवान। उनकी जायज माँग का, रखना होगा मान।। -- |
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मंगलवार, 15 दिसंबर 2020
दोहे "खेती का कानून" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
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कुहरे ने सूरज ढका , थर-थर काँपे देह। पर्वत पर हिमपात है , मैदानों पर मेह।१। -- कल तक छोटे वस्त्र थे , फैशन की थी होड़। लेक...
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सपना जो पूरा हुआ! सपने तो व्यक्ति जीवनभर देखता है, कभी खुली आँखों से तो कभी बन्द आँखों से। साहित्य का विद्यार्थी होने के नाते...
सुन्दर सृजन
जवाब देंहटाएंसही बात कही सर! सरकार को किसानों की माँग पर गौर करके इन कानूनों को तुरंत वापस लेना चाहिए।
जवाब देंहटाएंखेतीहर-मजदूर हैं, धरती के भगवान।
जवाब देंहटाएंउनकी जायज माँग का, रखना होगा मान।।
बिल्कुल सही।
बहुत सुन्दर सृजन ।
जवाब देंहटाएंबहुत सुंदर और प्रासंगिक दोहे।
जवाब देंहटाएंअत्यंत समसामयिक दोहे...
जवाब देंहटाएंनमन आपको आदरणीय 🍁🙏🍁
नमन मान्यवर बहुत सुन्दर रचना।
जवाब देंहटाएंबहुत सुंदर।
जवाब देंहटाएंप्रासंगिक समसामयिक दोहे।
सादर।
नभ में सूरज गुम हुआ, हाड़ कँपाता शीत।
जवाब देंहटाएंदाँतों से बजने लगा, किट-किट का संगीत।।
सुंदर दोहे...शीतकाल और आज के समय के ज्वलंत मुद्दों को अच्छी तरीके से दर्शाते हुए....