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सोने-चाँदी की चाह नहीं, मैं केसरिया शृंगार करूँ।
चन्दा से मुझको मोह नहीं, सूरज को अंगीकार करूँ।।
नेता सुभाष, आजाद, भगत, फिर से आओ इस भारत में,
मोहन दो चक्रसुदर्शन को, क्यों चरखे की दरकार करूँ।
जब भरी सभा में चीर खिँचा, खामोश रही-बिजली न बनी,
अब नहीं चाहिए पांचाली, लक्ष्मीबाई स्वीकार करूँ।
सीमा पर वीर-बाँकुरे तो, बारूद-आग से खेल करें,
जो देशप्रेम को सुलगा दें, उन अंगारों से प्यार करूँ।
अपनी वीणा से माताजी, अब मुझको तान सुनाओ मत,
दे दो अपना त्रिशूल मुझे, मैं अरिमस्तक पर वार करूँ।
अपने अधिकारों की भिक्षा, बन दीन-दलित क्यों माँग रहे,
अपनी वस्तु को पाने को, दुर्जन से क्यों मनुहार करूँ!
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वाह बहुत सुंदर ।
जवाब देंहटाएंसही कहा है.. अब हर दिल में देशप्रेम की अग्नि जलानी होगी...
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर और भावुक अभिव्यक्ति
जवाब देंहटाएंजन्माष्टमी की हार्दिक शुभकामनाऐं ----
सादर --
कृष्ण ने कल मुझसे सपने में बात की -------
बहुत सुन्दर।
जवाब देंहटाएंक्या बात.... बहुत सुन्दर.
जवाब देंहटाएंbahut hi sunder prastuti...
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