जो नंगापन ढके हमारा हमको वो परिधान चाहिए।
साध्य और साधन में हमको समरसता संधान चाहिए।।
अपनी मेहनत से ही हमने, अपना वतन सँवारा है,
जो कुछ इसमें रचा-बसा, उस पर अधिकार हमारा है,
सुलभ वस्तुएँ हो जाएँ सब, नहीं हमें अनुदान चाहिए।
साध्य और साधन में हमको समरसता संधान चाहिए।।
प्रजातन्त्र में राजतन्त्र की गन्ध घिनौनी आती है,
धनबल और बाहुबल से, सत्ता हथियाई जाती है,
निर्धन को भी न्याय सुलभ हो,ऐसा सख़्तविधान चाहिए।
साध्य और साधन में हमको समरसता संधान चाहिए।।
उपवन के पौधे आपस में, लड़ते और झगड़ते क्यों?
जो कोमल और सरल सुमन हैं उनमें काँटे गड़ते क्यों?
मतभेदों को कौन बढ़ाता, इसका अनुसंधान चाहिए।
साध्य और साधन में हमको समरसता संधान चाहिए।।
इस सोने की चिड़िया के, सारे ही गहने छीन लिए,
हीरा-पन्ना, माणिक-मोती, कौओ ने सब बीन लिए,
हिल-मिलकर सब रहें जहाँ पर हमको वो उद्यान चाहिए।
साध्य और साधन में हमको समरसता संधान चाहिए।।
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बुधवार, 27 अगस्त 2014
"गीत-नहीं हमें अनुदान चाहिए" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
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सुंदर चित्र और सुंदर गीत ।
जवाब देंहटाएंबहुत अच्छा गीत।
जवाब देंहटाएंआपकी इस प्रस्तुति का लिंक 28-08-2014 को मंच पर चर्चा - 1719 में दिया गया है
जवाब देंहटाएंआभार
सुन्दर चित्र के साथ सुन्दर गीत
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर गीत है,
जवाब देंहटाएंकाश की ऐसा सब कुछ सुलभ हो जाता !
वाह शास्त्री जी !
जवाब देंहटाएंबहुत सुंदर गीत है ,
इस गीत के लिए
धन्यवाद
अच्छा गीत
जवाब देंहटाएंमतभेदों को कौन बढ़ाता, इसका अनुसंधान चाहिए।
जवाब देंहटाएंPranam !
बहुत सुन्दर और सारगर्भित गीत...
जवाब देंहटाएंपर अब देश में तो नंगेपन की होड़ लग गयी है ,कोई विचारों के नंगे पन से ग्रसित है तो कोई वस्त्रों के , कोई गरीबी से नंगा हो गया है तो कोई अपने अमीरपन से किसी ने फूहड़ता से खुद को नंगा कर दिया तो किसी ने दुसरे की शालीनता को भी नंगापन समझ लिया वास्तव में आप द्वारा किया गया आव्हान स्वागत योग्य है , सुन्दर रचना
जवाब देंहटाएं