नहीं दिल्लगी कोई दिल को लगाना
सरल है मुहब्बत, कठिन है निभाना
सूरत छिपी हैं मुखौटों के पीछे
मासूम चेहरों से धोखा न खाना
बाहर से नाजुक हैं भीतर से पत्थर
अगर हो सके तो ज़िगर को बचाना
उमड़ते हैं ज़ज़्बात बनते हैं मिसरे
आसां नहीं उनको गाकर सुनाना
काँटों भरी है डगर आशिकी की
समझ-बूझकर ही कदम को बढ़ाना
मुहब्बत का कोई नहीं “रूप” होता
उल्फत के जंगल में बिखरा ख़जाना
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बुधवार, 20 अगस्त 2014
"ग़ज़ल-मासूम चेहरों से धोखा न खाना" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
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सुंदर रचना , आ. धन्यवाद !
जवाब देंहटाएंआपकी इस रचना का लिंक दिनांकः 21 . 8 . 2014 दिन गुरुवार को I.A.S.I.H पोस्ट्स न्यूज़ पर दिया गया है , कृपया पधारें धन्यवाद !
बहुत सुन्दर !
जवाब देंहटाएंमैं
ईश्वर कौन हैं ? मोक्ष क्या है ? क्या पुनर्जन्म होता है ? (भाग २ )
बहुत सुंदर रचना ।
जवाब देंहटाएंसुन्दर और सार्थक अभिव्यक्ति
जवाब देंहटाएंउत्कृष्ट प्रस्तुति
सादर ----
जवाब देंहटाएंमुहब्बत का कोई नहीं “रूप” होता
उल्फत के जंगल में बिखरा ख़जाना
मुहब्बत का कोई नहीं “रूप” होता
उल्फत के जंगल में बिखरा ख़जाना
बहुत खूब शाश्त्री जी
मोहब्बत की राहों में चलना सम्भलके ,
यहां जो भी आया गया हाथ मलके।
सुंदर सच.
जवाब देंहटाएंबहुत बढ़िया सर!
जवाब देंहटाएंसादर
बहुत सुन्दर
जवाब देंहटाएं