पतझड़ के मौसम में,
सुन्दर सुमन कहाँ से लाऊँ मैं?
वीराने मरुथल में,
कैसे उपवन को चहकाऊँ मैं?
बीज वही हैं, वही धरा है,
ताल-मेल अनुबन्ध नही,
हर बिरुअे पर
धान
लदे हैं,
लेकिन उनमें गन्ध नही,
खाद रसायन वाले देकर,
महक कहाँ से पाऊँ मैं?
वीराने मरुथल में,
कैसे उपवन को चहकाऊँ मैं?
उड़ा ले गई पश्चिम वाली,
आँधी सब लज्जा-आभूषण,
गाँवों के अंचल में उभरा,
नगरों का चारित्रिक दूषण,
पककर हुए कठोर पात्र अब,
क्या आकार बनाऊँ मैं?
वीराने मरुथल में,
कैसे उपवन को चहकाऊँ मैं?
गुरुओं से भयभीत छात्र,
अब नहीं दिखाई देते हैं, शिष्यों से अध्यापक अब तो, डरे-डरे से रहते हैं, संकर नस्लों को अब कैसे, गीता ज्ञान कराऊँ मैं? वीराने मरुथल में, कैसे उपवन को चहकाऊँ मैं?
पतझड़ के मौसम में,
सुन्दर सुमन कहाँ से लाऊँ मैं? वीराने मरुथल में, कैसे उपवन को चहकाऊँ मैं?
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गुरुवार, 16 अप्रैल 2020
गीत "कैसे उपवन को चहकाऊँ मैं" (डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री ‘मयंक’)
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बहुत सुंदर रचना।
जवाब देंहटाएंसब मिल कर सर्वशक्तिमान से इस संकट से जल्द छुटकारा दिलाने की प्रार्थना करें !
जवाब देंहटाएंसुंदर रचना
जवाब देंहटाएंजाने कैसी मरीचिका है जो आज के इंसान को भटका रही है -कहाँ जा कर इसका अंत होगा ,यह भी पता नहीं.
जवाब देंहटाएंअति सुंदर सृजन सर ,सादर नमस्कार आपको
जवाब देंहटाएंबहुत सुंदर रचना
जवाब देंहटाएंसादर
बहुत बहुत सुंदर।
जवाब देंहटाएंसार्थक वैचारिक सृजन।