मित्रों!
मैंने अक्सर यह देखा है कि सही जानकारी के अभाव में बहुत से लोग अपनी रचना में अपने मन से छन्द का नामकरण कर देते हैं। इसलिए आज प्रस्तुत आपके सम्मुख प्रस्तुत है छन्दों के विषय
में दुर्लभ जानकारी। जो व्यक्ति छन्दबद्ध रचना करते हैं। शायद उनके लिए यह आलेख उपयोगी होगा।
छन्द रचना
छन्द शब्द मूल रूप से छन्दस् अथवा छन्दः है। इसके शाब्दिक अर्थ दो है – ‘आच्छादित कर देने वाला’ और ‘आनन्द देने वाला’। लय और ताल से युक्त ध्वनि मनुष्य के हृदय
पर प्रभाव डाल कर उसे एक विषय में स्थिर कर देती है और मनुष्य उससे प्राप्त
आनन्द में डूब जाता है। यही कारण है कि लय और ताल वाली रचना छन्द कहलाती है.
इसका दूसरा नाम वृत्त है। वृत्त का अर्थ है प्रभावशाली रचना। वृत्त भी छन्द को
इसलिए कहते हैं,
क्यों कि
अर्थ जाने बिना भी सुनने वाला इसकी स्वर-लहरी से प्रभावित हो जाता है। यही कारण
है कि सभी वेद छन्द-रचना में ही संसार में प्रकट हुए थे।
छन्द के भेद
छन्द मुख्यतः दो प्रकार के हैं: (1) मात्रिक और (2)
वार्णिक
(1) मात्रिक छन्द: मात्रिक छन्दों में मात्राओं
की गिनती की जाती है।
(2) वार्णिक छन्दों में वर्णों की संख्या
निश्चित होती है और इनमें लघु और दीर्घ का क्रम भी निश्चित होता है, जब कि मात्रिक छन्दों में इस क्रम का होना
अनिवार्य नहीं है। मात्रा और वर्ण किसे कहते हैं, इन्हें समझिए:
मात्रा
= = । । ... सत्याग्रह = 6
इस प्रकार हमें पता चल गया कि इस शब्द में
छह मात्राएँ हैं। स्वरहीन व्यंजनों की पृथक् मात्रा नहीं गिनी जाती।
वर्ण या अक्षर
ह्रस्व मात्रा वाला वर्ण लघु और दीर्घ
मात्रा वाला वर्ण गुरु कहलाता है। यहाँ भी ‘सत्याग्रह’ वाला नियम समझ लेना चाहिए।
चरण अथवा पाद
‘पाद’ का अर्थ है चतुर्थांश, और ‘चरण’ उसका पर्यायवाची शब्द है। प्रत्येक छन्द
के प्रायः चार चरण या पाद होते हैं।
सम और विषमपाद
पहला और तीसरा चरण विषमपाद कहलाते हैं और
दूसरा तथा चौथा चरण समपाद कहलाता है। सम छन्दों में सभी चरणों की मात्राएँ या
वर्ण बराबर और एक क्रम में होती हैं और विषम छन्दों में विषम चरणों की मात्राओं
या वर्णों की संख्या और क्रम भिन्न तथा सम चरणों की भिन्न होती हैं।
यति
हम किसी पद्य को गाते हुए जिस स्थान पर
रुकते हैं,
उसे यति या
विराम कहते हैं। प्रायः प्रत्येक छन्द के पाद के अन्त में तो यति होती ही है, बीच बीच में भी उसका स्थान निश्चित होता है। प्रत्येक छन्द की यति भिन्न भिन्न मात्राओं या वर्णों के बाद प्रायः होती है।
छन्द के प्रकार
छन्द तीन प्रकार के होते है।
वर्णिक छंद (या वृत) - जिस छंद के सभी
चरणों में वर्णों की संख्या समान हो।
मात्रिक छंद (या जाति) - जिस छंद के सभी
चरणों में मात्राओं की संख्या समान हो।
मुक्त छंद - जिस छंद में वर्णिक या मात्रिक
प्रतिबंध न हो।
वर्णिक छंद
वर्णिक छंद के सभी चरणों में वर्णों की
संख्या समान रहती है और लघु-गुरु का क्रम समान रहता है।
प्रमुख वर्णिक छंद
प्रमाणिका (8 वर्ण); स्वागता, भुजंगी, शालिनी, इन्द्रवज्रा, दोधक (सभी 11 वर्ण); वंशस्थ, भुजंगप्रयाग, द्रुतविलम्बित, तोटक (सभी 12 वर्ण); वसंततिलका (14 वर्ण); मालिनी (15 वर्ण); पंचचामर, चंचला (सभी 16 वर्ण); मन्दाक्रान्ता, शिखरिणी (सभी 17 वर्ण), शार्दूल विक्रीडित (19 वर्ण), स्त्रग्धरा (21 वर्ण), सवैया (22 से 26 वर्ण), घनाक्षरी (31 वर्ण) रूपघनाक्षरी (32 वर्ण), देवघनाक्षरी (33 वर्ण), कवित्त / मनहरण (31-33 वर्ण)।
मात्रिक छंद
मात्रिक छंद के सभी चरणों में मात्राओं की
संख्या तो समान रहती है लेकिन लघु-गुरु के क्रम पर ध्यान नहीं दिया जाता है।
प्रमुख मात्रिक छंद
सम मात्रिक छंद
अहीर (11 मात्रा), तोमर (12 मात्रा), मानव (14 मात्रा); अरिल्ल, पद्धरि/ पद्धटिका, चौपाई (सभी 16 मात्रा); पीयूषवर्ष, सुमेरु (दोनों 19 मात्रा), राधिका (22 मात्रा), रोला, दिक्पाल, रूपमाला (सभी 24 मात्रा), गीतिका (26 मात्रा), सरसी (27 मात्रा), सार (28 मात्रा), हरिगीतिका (28 मात्रा), तांटक (30 मात्रा), वीर या आल्हा (31 मात्रा)।
अर्द्धसम मात्रिक छंद
बरवै (विषम चरण में - 12 मात्रा, सम चरण में - 7 मात्रा),
दोहा (विषम - 13, सम - 11),
सोरठा (दोहा का उल्टा)
उल्लाला (विषम - 15, सम - 13)
विषम मात्रिक छंद
कुण्डलिया (दोहा + रोला),
छप्पय (रोला + उल्लाला)।
मुक्त छंद
जिस विषय छंद में वर्णित
या मात्रिक प्रतिबंध न हो, न प्रत्येक चरण में वर्णों की संख्या और
क्रम समान हो और मात्राओं की कोई निश्चित व्यवस्था हो तथा जिसमें नाद और ताल के
आधार पर पंक्तियों में लय लाकर उन्हें गतिशील करने का आग्रह हो, वह मुक्त छंद है।
उदाहरण : निराला की कविता 'जूही की कली' इत्यादि।
मात्रिक छन्द
दोहा
संस्कृत में इस का नाम
दोहडिका छन्द है । इसके विषम चरणों में तेरह-तेरह और सम चरणों में ग्यारह-ग्यारह
मात्राएँ होती हैं, विषम चरणों के आदि में
।ऽ । (जगण) इस प्रकार का मात्रा-क्रम नहीं होना चाहिए और अंत में गुरु और
लघु (ऽ ।) वर्ण होने चाहिए। सम चरणों की तुक आपस में मिलनी चाहिए। जैसे:
।ऽ ।ऽ । ।
ऽ । ऽ ऽऽ ऽ
ऽऽ ।
महद्धनं यदि ते भवेत्, दीनेभ्यस्तद्देहि।
विधेहि कर्म सदा शुभं, शुभं फलं त्वं प्रेहि॥
इस दोहे की पहली पंक्ति में विषम और सम
दोनों चरणों पर मात्राचिह्न लगा दिए हैं । इसी प्रकार दूसरी पंक्ति में भी आप
दोनों चरणों पर ये चिह्न लगा सकते हैं। अतः दोहा एक अर्धसम मात्रिक छन्द है।
हरिगीतिका
हरिगीतिका छन्द में
प्रत्येक चरण में 28 मात्राएँ होती हैं और अन्त में लघु और फिर गुरु वर्ण अवश्य होना चाहिए।
इसमें यति 16 तथा 12 मात्राओं के बाद होती हैं; जैसे
। । ऽ ।
ऽ ऽ ऽ ।ऽ । ।ऽ । ऽ ऽ
ऽ । ऽ
मम मातृभूमिः भारतं धनधान्यपूर्णं स्यात् सदा।
नग्नो न क्षुधितो कोऽपि स्यादिह वर्धतां सुख-सन्ततिः।
स्युर्ज्ञानिनो गुणशालिनो ह्युपकार-निरता मानवः,
अपकारकर्ता कोऽपि न स्याद् दुष्टवृत्तिर्दांवः॥
इस छन्द की भी प्रथम पंक्ति
में मात्राचिह्न लगा दिए हैं। शेष पर स्वयं लगाइए।
गीतिका
इस छन्द में प्रत्येक चरण
में छब्बीस मात्राएँ होती हैं और 14 तथा 12 मात्राओं के बाद यति होती है। जैसे:
ऽ । ऽ ॥ ऽ
। ऽ ऽ
ऽ । ऽ ऽ ऽ । ऽ
हे दयामय दीनबन्धो, प्रार्थना मे श्रूयतां
यच्च दुरितं दीनबन्धो, पूर्णतो व्यपनीयताम्।
चञ्चलानि मम चेन्द्रियाणि, मानसं मे पूयतां
शरणं याचेऽहं सदा हि, सेवकोऽस्म्यनुगृह्यताम्॥
ऊपर पहले चरण पर मात्रा-चिह्न
लगा दिए हैं। इसी प्रकार सारे चरणों में आप चिह्न लगा कर मात्राओं की गणना कर
सकते हैं।
वर्णिक छन्द
वर्णिक छन्दों में वर्ण
गणों के हिसाब से रखे जाते हैं। तीन वर्णों के समूह को गण कहते हैं। इन गणों के
नाम हैं: यगण,
मगण, तगण, रगण, जगण, भगण, नगण और सगण। अकेले लघु को ‘ल’ और गुरु को ‘ग’ कहते हैं। किस गण में लघु-गुरु का क्या
क्रम है,
यह जानने के
लिए यह सूत्र याद कर लीजिए:
यमाताराजभानसलगा:
जिस गण को जानना हो उसका वर्ण इस में देखकर
अगले दो वर्ण और साथ जोड लीजिए और उसी क्रम से गण की मात्राएँ लगाइए, जैसे:
यगण - यमाता = ।ऽऽ आदि लघु
मगण - मातारा = ऽऽऽ सर्वगुरु
तगण - ताराज = ऽऽ । अन्तलघु
रगण - राजभा = ऽ ।ऽ मध्यलघु
जगण - जभान = ।ऽ । मध्यगुरु
भगण - भानस = ऽ ॥ आदिगुरु
नगण - नसल = ॥ । सर्वलघु
सगण - सलगाः = ॥ऽ अन्तगुरु
मात्राओं में जो अकेली मात्रा है, उस के आधार पर इन्हें आदिलघु या आदिगुरु
कहा गया है। जिसमें सब गुरु है, वह ‘मगण’ सर्वगुरु कहलाया और सभी लघु होने से ‘नगण’ सर्वलघु कहलाया। नीचे सब गणों के स्वरुप
का एक श्लोक दिया जा रहा है। उसे याद कर लीजिए:
मस्त्रिगुरुः त्रिलघुश्च नकारो,
भादिगुरुः पुनरादिर्लघुर्यः।
जो गुरुम्ध्यगतो र-लमध्यः,
सोऽन्तगुरुः कथितोऽन्तलघुःतः॥
अब कुछ वर्णिक छन्दों का परिचय दिया जा रहा है:
अनुष्टुप
इस छन्द को श्लोक भी कहते
हैं। इसके अनेक भेद हैं, परंतु जिस का अधिकतर व्यवहार हो रहा है, उसका लक्षण इस प्रकार से है:
श्लोके षष्ठं गुरुर्ज्ञेयं सर्वत्र लघु पञ्चमम्।
द्विचतुः पादयोर्ह्रस्वं सप्तमं दीर्घमन्ययोः॥
यह छन्द अर्धसमवृत्त है।
इस के प्रत्येक चरण में आठ वर्ण होते हैं। पहले चार वर्ण किसी भी मात्रा के हो
सकते हैं। छठा वर्ण गुरु और पाँचवाँ लघु होता है। सम चरणों में सातवाँ वर्ण
ह्रस्व और विषम चरणों में गुरु होता है, जैसे:
।ऽ ऽ ऽ । ऽ । ऽ
लोकानुग्रहकर्तारः, प्रवर्धन्ते नरेश्वराः।
लोकानां संक्षयाच्चैव, क्षयं यान्ति न संशयः॥
पंचतंत्र/मित्रभेद/169
गीता, रामायण, महाभारत आदि में इसी छन्द का बाहुल्य है।
शार्दूलविक्रीडित
शार्दूलविक्रीडित छन्द के
प्रत्येक चरण में 19 वर्ण निम्नलिखित क्रम से होते हैं:
सूर्याश्वैर्यदि मः सजौ सततगाः शार्दूलविक्रीडितम्।
सूर्य (12) और अश्व (7) पर जिसमें यति होती है और जहाँ वर्ण मगण, सगण, जगण, सगण, तगण, तगण और एक गुरु के क्रम से रखे जाते हैं, वह शार्दूलविक्रीडित छन्द होता है; जैसे:
ऽ ऽ ऽ । ।
ऽ । ऽ । ॥
ऽ ऽ ऽ
। ऽ ऽ । ऽ
रे रे चातक ! सावधान-मनसा मित्र क्षणं श्रूयताम्
अम्भोदा बहवो वसन्ति गगने सर्वे तु नैतादृशाः।
केचिद् वृष्टिभिरार्द्रयन्ति वसुधां गर्जन्ति केचिद् वृथा
यं यं पश्यसि तस्य तस्य पुरतो मा ब्रूहि दीनं वचः॥ नीति./47
इस प्रकार यहाँ 3 मात्रिक और 12 वर्णिक महत्त्वपूर्ण छ्न्दों का परिचय
दिया गया है।
शिखरिणी
शिखरिणी छन्द के प्रत्येक
पाद में 17 वर्ण होते हैं और पहले 6 तथा फिर 11 वर्णों के बाद यति होती है। इस का लक्षण
इस प्रकार से है:
रसैः रुद्रैश्छिन्ना यमनसभला गः शिखरिणी
जिसमें यगण, मगण, नगण, सगण, भगण और लघु तथा गुरु के क्रम से प्रत्येक
चरण में वर्ण रखे जाते हैं और 6 तथा 11 वर्णों के बाद यति होती है, उसे शिखरिणी छन्द कहते हैं; जैसे:
। ऽ ऽ ऽ ऽ
ऽ । ।
। ऽ ऽ । । ऽ
यदा किञ्चिज्ज्ञोऽहं द्विप इव मदान्धः समभवं
तदा सर्वज्ञोऽस्मीत्यभवदवलिप्तं मम मनः ।
यदा किञ्चित्किञ्चिद् बुधजनसकाशादधिगतं
तदा मूर्खोऽस्मीति ज्वर इव मदो मे व्यपगतः॥
(नीतिशतक/7)
इन्द्रवज्रा
इन्द्रवज्रा छन्द के
प्रत्येक चरण में 11-11 वर्ण होते हैं। इस का लक्षण इस प्रकार से है:
स्यादिन्द्रवज्रा यदि तौ जगौ गः।
इसका अर्थ है कि इन्द्रवज्रा के प्रत्येक
चरण में दो तगण,
एक जगण और
दो गुरु के क्रम से वर्ण रखे जाते हैं। इसका स्वरुप इस प्रकार से है:
ऽऽ । ऽऽ । ।ऽ । ऽऽ
तगण तगण जगण
दो गुरु
उदाहरण:
ऽ ऽ । ऽऽ । ।
ऽ । ऽ ऽ
विद्येव पुंसो महिमेव राज्ञः
प्रज्ञेव वैद्यस्य दयेव साधोः।
लज्जेव शूरस्य मुजेव यूनो,
सम्भूषणं तस्य नृपस्य सैव॥
यहाँ प्रत्येक पंक्ति में
प्रथम पंक्ति वाले ही वर्णों का क्रम है। अतः यहाँ इन्द्रवज्रा छन्द है।
मन्दाक्रांता
मन्दाक्रान्ता छन्द में प्रत्येक चरण में
मगण,
भगण, नगण, तगण, तगण और दो गुरु वर्णों पर यति होती है।
यही बात इस लक्षण में कही गई है:
मन्दाक्रान्ता ऽभ्बुधिरसनगैर्मो भनौ तौ ग-युग्मम्।
क्योंकि अम्बुधि (सागर) 4 हैं, रस 6 हैं, और नग (पर्वत) 7 हैं, अतः इस क्रम से यति होगी और मगण, भगण, नगण, तगण, तगण और दो गुरु वर्ण होंगे ।
उदाहरण:
ऽ ऽ ऽ ऽ ॥ । ॥
ऽ ऽ
। ऽ ऽ । ऽ ऽ
यद्वा तद्वा विषमपतितः साधु वा गर्हितं वा
कालापेक्षी हृदयनिहितं बुद्धिमान् कर्म कुर्यात्।
किं गाण्डीवस्फुरदुरुघनस्फालनक्रूरपाणिः
नासील्लीलानटनविलखन् मेखली सव्यसाची॥
उपेन्द्रवज्रा
इस छन्द के भी प्रत्येक चरण
में 11-11 वर्ण होते हैं। लक्षण इस प्रकार से हैं:
उपेन्द्रवज्रा जतजास्ततो गौ
इसका अर्थ यह है कि
उपेन्द्रवज्रा के प्रत्येक चरण में जगण, तगण, जगण और दो गुरु वर्णों के क्रम से वर्ण होते
हैं। इस का स्वरुप इस प्रकार से है:
।ऽ । ऽऽ । ।ऽ । ऽऽ
जगण तगण जगण दो गुरु
उदाहरण:
। ऽ । ऽ ऽ
। । ऽ । ऽ ऽ
त्वमेव माता च पिता त्वमेव
त्वमेव बन्धुश्च सखा त्वमेव।
त्वमेव विद्या द्रविणं त्वमेव
त्वमेव सर्वं मम देव-देव॥
(अंतिम ‘व’ लघु होते हुए भी गुरु माना गया है।
उपजाति छन्द
जिस छन्द में कोई चरण
इन्द्रवज्रा का हो और कोई उपेन्द्रवज्रा का, उसे उपजाति छन्द कह्ते हैं। इसका लक्षण और
उदाहरण पद्य में देखिए:
अनन्तरोदीरितलक्ष्मभाजौ
पादौ यदीयावुपजातयस्ताः ।
इत्थं किलान्यास्वपि मिश्रितासु
वदन्ति जातिष्विदमेव नाम॥
अर्थात् इन्द्रवज्रा और
उपेन्द्रवज्रा अथवा अन्य प्रकार के छन्द जब मिलकर एक रुप ग्रहण कर लेते हैं, तो उसे उपजाति कहते हैं।
साहित्यसङ्गीत कला-विहीनः
साक्षात्पशुः पृच्छ-विषाणहीनः।
तृणं न खादन्नपि जीवमानः
तद्भागधेयं परमं पशुनाम्॥
(नीतिशतकम्)
अस्त्युत्तरस्यां दिशि देवतात्मा
हिमालयो नाम नगाधिराजः।
पूर्वापरौ तोयनिधी वगाह्य
स्थितः पृथिव्या इव मानदण्डः॥
(कुमारसंभवम्)
मालिनी
मालिनी 15 वर्णों का छन्द है, जिसका लक्षण इस प्रकार से है:
न-न-मयययुतेयं मालिनी भोगिलोकैः।
इसका अर्थ है कि मालिनी
छन्द में प्रत्येक चरण में नगण, नगण, मगण और दो यगणों के क्रम से 15 वर्ण होते हैं और इसमें यति आठवें और
सातवें वर्णों के बाद होती है; जैसे :
। ॥ । ॥
ऽ ऽ ऽ
। ऽ ऽ । ऽ ऽ
वयमिह परितुष्टाः वल्कलैस्त्वं दुकूलैः
सम इह परितोषो निर्विशेषो विशेषः।
स तु भवति दरिद्रो यस्य तृष्णा विशाला
मनसि तु परितुष्टे कोऽर्थवान् को दरिद्रः॥
(वैराग्यशतक /45)
द्रुतविलंबित
छन्द इस छन्द के प्रत्येक
चरण में 12-12 वर्ण होते हैं, जिस का लक्षण और स्वरुप निम्नलिखित है:
द्रुतविलम्बित माहो नभौ भरौ
अर्थात् द्रुतविलम्बित
छ्न्द के प्रत्येक चरण में नगण, भगण, भगण और रगण के क्रम से 12 वर्ण होते हैं।
। । । ऽ
॥ ऽ ।
।ऽ । ऽ
विपदि धैर्यमथाभ्युदये क्षमा
सदसि वाक्पटुता युधि विक्रमः ।
यशसि चाभिरुचिर्व्यसनं श्रुतौ
प्रकृतिसिद्धमिदं हि महात्मनाम्॥
नीतिशतकम् / 59
वसन्ततिलका
यह चौदह वर्णों का छन्द है। तगण,
भगण, जगण, जगण और दो गुरुओं के क्रम से इसका प्रत्येक
चरण बनता है। पद्य में लक्षण तथा उदाहरण देखिए:
उक्ता वसन्ततिलका तभजाः जगौ गः।
उदाहरण:
ऽ ऽ । ऽ । ।
।ऽ । । ऽ
। ऽ ऽ
हे हेमकार परदुःख-विचार-मूढ
किं मां मुहुः क्षिपसि वार-शतानि वह्नौ।
सन्दीप्यते मयि तु सुप्रगुणातिरेको-
लाभः परं तव मुखे खलु भस्मपातः॥
भुजङ्गप्रयातं छन्द
इस छन्द में चार यगणों के
क्रम से प्रत्येक चरण बनता है, जिसका पद्य-लक्षण और स्वरुप यह है:
भुजङ्गप्रयातं चतुर्भिर्यकारैः
उदाहरण:
। ऽ ऽ । ऽऽ
। ऽ ऽ । ऽ ऽ
प्रभो ! देशरक्षा बलं मे प्रयच्छ
नमस्तेऽस्तु देवेश ! बुद्धिं च यच्छ।
सुतास्ते वयं शूरवीरा भवाम
गुरुन् मातरं चापि तातं नमाम॥
वदन्ति वंशस्थविल: छन्द
इस छन्द के प्रत्येक चरण में
क्रमशः जगण,
तगण, जगण और रगण के क्रम से 12 वर्ण होते हैं। पद्य में लक्षण और उदाहरण
देखिए:
वदन्ति वंशस्थविलं जतौ जरौ
उदाहरण:
। ऽ । ऽ
ऽ ॥ ऽ
। ऽ । ऽ
न तस्य कार्यं करणं च विद्यते
न तत्समश्चाभ्यधिकश्च दृश्यते।
पराऽस्य शक्तिर्विविधैव श्रूयते
स्वाभाविकी ज्ञान-बल-क्रिया च॥
श्वेताश्वतर/6/8
(साभार-गोगिया
सुनील)
|
"उच्चारण" 1996 से समाचारपत्र पंजीयक, भारत सरकार नई-दिल्ली द्वारा पंजीकृत है। यहाँ प्रकाशित किसी भी सामग्री को ब्लॉग स्वामी की अनुमति के बिना किसी भी रूप में प्रयोग करना© कॉपीराइट एक्ट का उलंघन माना जायेगा। मित्रों! आपको जानकर हर्ष होगा कि आप सभी काव्यमनीषियों के लिए छन्दविधा को सीखने और सिखाने के लिए हमने सृजन मंच ऑनलाइन का एक छोटा सा प्रयास किया है। कृपया इस मंच में योगदान करने के लिएRoopchandrashastri@gmail.com पर मेल भेज कर कृतार्थ करें। रूप में आमन्त्रित कर दिया जायेगा। सादर...! और हाँ..एक खुशखबरी और है...आप सबके लिए “आपका ब्लॉग” तैयार है। यहाँ आप अपनी किसी भी विधा की कृति (जैसे- अकविता, संस्मरण, मुक्तक, छन्दबद्धरचना, गीत, ग़ज़ल, शालीनचित्र, यात्रासंस्मरण आदि प्रकाशित कर सकते हैं। बस आपको मुझे मेरे ई-मेल roopchandrashastri@gmail.com पर एक मेल करना होगा। मैं आपको “आपका ब्लॉग” पर लेखक के रूप में आमन्त्रित कर दूँगा। आप मेल स्वीकार कीजिए और अपनी अकविता, संस्मरण, मुक्तक, छन्दबद्धरचना, गीत, ग़ज़ल, शालीनचित्र, यात्रासंस्मरण आदि प्रकाशित कीजिए। |
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शुक्रवार, 3 अप्रैल 2020
आलेख "छन्दों के विषय में जानकारी" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री ‘मयंक’)
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जवाब देंहटाएंसुंदरम आद.
जवाब देंहटाएंबहुत बहुत धन्यवाद आदरणीय। छंद की पूरी जानकारी हेतु।
जवाब देंहटाएंबहुत ही लाजवाब जानकारी है छन्द की एक बार पढकर तो समझना मुश्किल है मेरे लिए....इसलिए बार बार पढूंगी।
जवाब देंहटाएंसादर आभार ।
बेहतरीन जानकारी सर ,मुझे भी बहुत पढ़ना होगा तब समझ पाऊँगी ,आपका बहुत बहुत धन्यवाद इस बहुमूल्य जानकारी को साझा करने के लिए
जवाब देंहटाएंदुर्लभ और संग्रहणीय आलेख । इस तरह के लेख भाषा व साहित्य की दृष्टि से ज्ञानवर्धक हैं । आभार आदरणीय इस अनुपम लेख हेतु ।
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