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जीवन के हर चौराहे पर, गलियाँ मिल जाती हैं।
मरुस्थलों में कभी-कभी, कलियाँ खिल जाती हैं।।
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बेहोशी में पड़े रहे तो, प्राण निकल जायेंगे,
पाकर पवन झकोरें, सोये गुल खिल जायेंगे,
भूली-बिसरी बात, कहानी में ढल जाती हैं।
मरुस्थलों में कभी-कभी, कलियाँ खिल जाती हैं।।
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मेंहदी तो सजनी-साजन के, हाथों में रचती है,
उसकी महक हृदय के, कोने-कोने में बसती है,
भँवरे को फिर से, उसकी गुंजन मिल जाती हैं।
मरुस्थलों में कभी-कभी, कलियाँ खिल जाती हैं।।
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रिश्तों की बुनियाद, समझना मत कव्वाली है,
दिल से
करना प्यार, मुहब्बत भोली-भाली है,
सफर, सफर है, इसमें
यादें आती जाती हैं,
मरुस्थलों में कभी-कभी, कलियाँ खिल जाती हैं।।
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प्रेम अमर है, प्रेम अजर है, उसकी
अपनी है भाषा,
ढाई आखर में ही जग की, रची-बसी है जिज्ञासा,
मिलन-यामिनी में, उलझी लड़ियाँ खुल जाती हैं।
मरुस्थलों में कभी-कभी, कलियाँ खिल जाती हैं।।
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शनिवार, 18 अप्रैल 2020
गीत "मरुस्थलों में कलियाँ" (डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री ‘मयंक’)
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मरुस्थलों में, कभी-कभार ही सही, खिलने वाली कलियाँ भविष्य के प्रति आस्था जगाती हैं
जवाब देंहटाएंइस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.
जवाब देंहटाएंइस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.
जवाब देंहटाएंसादर नमस्कार ,
जवाब देंहटाएंआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल रविवार (19 -4 -2020 ) को शब्द-सृजन-१७ " मरुस्थल " (चर्चा अंक-3676) पर भी होगी,
आप भी सादर आमंत्रित हैं।
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कामिनी सिन्हा
बहुत बढ़िया
जवाब देंहटाएंबहुत सुंदर सृजन आ0
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