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गजल में काफिया-मतला मुहब्बत से सजाना है
हसीं लफ्रजों की माला को करीने से बनाना है
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जहाँ में प्यार का इजहार करना है कठिन अब तो
अलग सूरत, अलग सीरत, बड़ा जालिम जमाना है
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बनावट में मिलावट के निराले ढंग मिलते हैं
सियासत ने सियासत से भरा अपना खजाना है
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गुजारा भूख में जीवन जिन्होंने गुरबतों में ही
गरीबों का बड़ी मुश्किल से बनता अशियाना है
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नहीं टूटे कभी भी सिलसिला अशआर का इसमें
ग़जल में ‘रूप’ का मुश्किल हुआ मक्ता लगाना है
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शुक्रवार, 17 अप्रैल 2020
ग़ज़ल "मुश्किल हुआ मक्ता लगाना है" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
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बहुत अच्छी प्रस्तुति
जवाब देंहटाएंजी नमस्ते,
जवाब देंहटाएंआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा शनिवार(१८-०४-२०२०) को 'समय की स्लेट पर ' (चर्चा अंक-३६७५) पर भी होगी
चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट अक्सर नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का
महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
आप भी सादर आमंत्रित है
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अनीता सैनी
गुजारा भूख में जीवन जिन्होंने गुरबतों में ही
जवाब देंहटाएंगरीबों का बड़ी मुश्किल से बनता अशियाना है
वाह!!!
लाजवाब।
वाह! ग़ज़ल शृङ्गार की ख़ूबसूरत चर्चा करती ग़ज़ल।
जवाब देंहटाएंसादर नमन आदरणीय सर।
आदरणीय डॉ रूप चंद्र शास्त्री "मयंक" जी आपकी यह गजल बहुत अच्छी है। इसे लाजवाब कहा जा सकता है। आपका शब्द संयोजन अद्भुत है। सादर साधुवाद!
जवाब देंहटाएं