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बलखाती-लहराती उमड़ी, पर्वत से जल धारा।
मैदानों पर आकर, उसने चंचल 'रूप' सँवारा।।
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बहती है उन्मुक्त भाव से, अपनी राह बनाती,
कलकल-छलछल करती, सबको मधुरिम राग सुनाती,
गंगा ने सिखलाया जग को, चरैवेति का नारा।
मैदानों पर आकर, उसने चंचल 'रूप' सँवारा।।
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जब-जब कदम बढ़ाता राही, आगे को बढ़ जाता,
तालाबों का नीर, पंक के साथ सदा सड़ जाता,
बैठे-ठाले नहीं किसी को, देता कोई सहारा।
मैदानों पर आकर, उसने चंचल 'रूप' सँवारा।।
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बिना नेह के सूखी बाती, कभी नहीं जलती है,
साहस-श्रम से ही तो, जीवन की नौका चलती है,
नाविक की पतवार चली, तो आया पास किनारा।
मैदानों पर आकर, उसने चंचल 'रूप' सँवारा।।
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शनिवार, 25 अप्रैल 2020
गीत "आया पास किनारा" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
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बैठे ठाले नहीं किसी को देता कोई सहारा... वाह!
जवाब देंहटाएंनिष्क्रिय, निठ्ठले को सहारा देना भी अनुचित ही होता है
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर
जवाब देंहटाएं
जवाब देंहटाएंसुंदर अभिव्यक्ति सर ,सादर नमन
बिना नेह के सूखी बाती, कभी नहीं जलती है,
जवाब देंहटाएंसाहस-श्रम से ही तो, जीवन की नौका चलती है,
बहुत सुन्दर
बिना नेह के सूखी बाती, कभी नहीं जलती है,
जवाब देंहटाएंसाहस-श्रम से ही तो, जीवन की नौका चलती है,
प्रेरक पंक्तियाँ ! सार्थक सृजन ! अति सुन्दर !
बहुत सुंदर गीत मनोहर झांकी के साथ सुंदर उपदेशात्मकता लिए अभिनव रचना।
जवाब देंहटाएंकिनारे की विभिन्न आयाम प्रस्तुत करती सुंदर अभिव्यक्ति।
जवाब देंहटाएंसादर नमन सर।