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महक लुटाते कानन पावन नहीं रहे
गोबर लिपे हुए घर-आँगन नहीं रहे
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आज आदमी में मानवता सुप्त हुई
गौशालाएँ भी नगरों से लुप्त हुई
दाग लगे हैं आज चमन के दामन में
वैद्यराज सा नीम नहीं है आँगन में
ताल और लय मनभावन नहीं रहे
गोबर लिपे हुए घर-आँगन नहीं रहे
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यौवन आने से पहले सूखी डाली
लुटी-पिटी सी है पेड़ों की हरियाली
कौन करेगा आज चमन की रखवाली
बने हुए खुदगर्ज आज वन के माली
कृष्णचन्द्र के अब वृन्दावन नहीं रहे
गोबर लिपे हुए घर-आँगन नहीं रहे
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इन्द्रधनुष ने रंग बदलने छोड़ दिये
इतिहासों के पृष्ठ पलटने छोड़ दिये
रीत-रिवाज पुराने हमने छोड़ दिये
भारतीय परिधान पहनने छोड़ दिये
रिमझिम वाले भादो-सावन नहीं रहे
गोबर लिपे हुए घर-आँगन नहीं रहे
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शिक्षा का अब है अकाल विद्यालय में
मस्त हो रही नई पौध मदिरालय में
दादा-दादी पड़े हुए वृद्धालय में
घर के मसले तय होते न्यायालय में
देवतुल्य पर्वत के पाहन नहीं रहे
गोबर लिपे हुए घर-आँगन नहीं रहे
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सोमवार, 6 अप्रैल 2020
प्रकाशन "गोबर लिपे हुए घर" (डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
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अति सुन्दर भावाभिव्यक्ति आदरणीय .
जवाब देंहटाएंसादर नमस्कार ,
जवाब देंहटाएंआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल मंगलवार (7-4-2020 ) को " मन का दीया "( चर्चा अंक-3664) पर भी होगी,
आप भी सादर आमंत्रित हैं।
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कामिनी सिन्हा
बहुत ही सुंदर वर्तमान स्थिति पर बहुत ही सुंदर रचना आदरणीय शास्त्री जी
जवाब देंहटाएंवाह! बहुत खूब।
जवाब देंहटाएंसुंदर रचना
जवाब देंहटाएंसुंदर और विचारणीय गीत।
जवाब देंहटाएंयथार्थ का सुंदर चित्रण
जवाब देंहटाएंअपनी संस्कृति को भुलाकर ही तो मानव का यह पतन हुआ है, आज समय आ गया है कि हम अपने अतीत से सीखकर भविष्य का निर्माण करें
जवाब देंहटाएं