-- अब समय आ गया सुखनवरो! अपने शब्दों में धार भरो। सोई चेतना जगाने को, जनमानस में हुंकार भरो।। -- अनुबन्धों में भी मक्कारी, सम्बन्ध बन गये व्यापारी। जननायक करते गद्दारी, लाचारी में दुनिया सारी। अब नहीं समय शीतलता का, मलयानिल में अंगार भरो। सोई चेतना जगाने को, जनमानस में हुंकार भरो।। -- है उपासना वासनायुक्त, करना इसको वासनामुक्त। कायरता का है उदयकाल, हो गयी वीरता आज लुप्त। अब पैन बाण सा पैना कर, गांडीव उठा टंकार करो। सोई चेतना जगाने को, जनमानस में हुंकार भरो।। -- मत उत्तेजक शृंगार करो, मिश्री जैसा मत प्यार करो। छन्दों की सबल इमारत में, मानवता का आधार धरो। निज “रूप” पुरातन पहचानो, फिर से वीणा झंकार करो। सोई चेतना जगाने को, जनमानस में हुंकार भरो।। -- |
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जी नमस्ते ,
जवाब देंहटाएंआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शनिवार (०३-०४-२०२१) को ' खून में है गिरोह हो जाना ' (चर्चा अंक-४०२५) पर भी होगी।
आप भी सादर आमंत्रित है।
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अनीता सैनी
आदरणीय शास्त्री जी, नमस्कार !
जवाब देंहटाएंबहुत ही जोशपूर्ण तथा सार्थक संदेश भरी रचना । हमेशा की तरह समसामयिक भी ।सादर शुभकामनाएं ।
वाह। बहुत सुंदर।
जवाब देंहटाएंजनमानस में नवीन ऊर्जा का संचार करने वाला गीत...
जवाब देंहटाएंसाधुवाद आदरणीय 🙏
इस ओजस्वी गीत को पढ़कर नस-नस में ऊर्जा प्रवाहित हो गई शास्त्री जी ।
जवाब देंहटाएंओजपूर्ण सृजन ।
जवाब देंहटाएंबहुत बहुत सुन्दर सराहनीय रचना ।
जवाब देंहटाएंजनचेतना के लिए हुंकार जरुरी है
जवाब देंहटाएंओज भरा आह्वान करता सुंदर सृजन आदरणीय।
जवाब देंहटाएंजन-जन में जागरूकता आते सभी चाहते हैं पर मशाल जलाकर निकलता कौन है।
सादर।