मित्रों! 16 अक्तूबर, 2016 को निम्न गीत लिखा था, परन्तु इस गीत की कुछ पंक्तियों में थोड़ा बदलाव करके बहुत से लोगों ने इस गीत को अपने नाम से यू-ट्यूब पर लगा दिया है। देश के धन को देश में रखना, बहा न देना नाली में। मिट्टी के ही दिये जलाना, अबकी बार दिवाली में।। -- बने जो अपनी माटी से वो दीप बिकें बाजारों में, भरी हुई है वैज्ञानिकता. अपने सब त्यौहारों में, राष्ट्र हितों का गला घोंटकर छेद न करना थाली में। मिट्टी के ही दिये जलाना, अबकी बार दिवाली में।। -- त्यौहारों पर अब गरीब की, जेब कभी ना खाली हो। झिलमिल नन्हें दीप जलें जब, काली नहीं दिवाली हो। देश की सीमा रहे सुरक्षित चूक न हो रखवाली में। मिट्टी के ही दिये जलाना, अबकी बार दिवाली में।। -- रहे देश की दौलत अपने ही लोगों की झोली में। मिलता है आनन्द हमेशा, अपनी ही रंगोली में। योगदान है सबका होता जनता की खुशहाली में। मिट्टी के ही दिये जलाना, अबकी बार दिवाली में।। वस्तु स्वदेशी अपनाने का आओ हम सब प्रण कर लें, अपने उत्पादन से अपना, दामन खुशियों से भर लें। गले मिलें सब लोग देश के, होली, ईद-दिवाली में। मिट्टी के ही दिये जलाना, अबकी बार दिवाली में।। -- |
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गुरुवार, 4 नवंबर 2021
गीत "मिट्टी के ही दिये जलाना, अबकी बार दिवाली में" (डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
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नमस्ते,
जवाब देंहटाएंआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा शुक्रवार (05 -11-2021 ) को 'अपने उत्पादन से अपना, दामन खुशियों से भर लें' (चर्चा अंक 4238) पर भी होगी। आप भी सादर आमंत्रित है। रात्रि 12:01 AM के बाद प्रस्तुति ब्लॉग 'चर्चामंच' पर उपलब्ध होगी।
चर्चामंच पर आपकी रचना का लिंक विस्तारिक पाठक वर्ग तक पहुँचाने के उद्देश्य से सम्मिलित किया गया है ताकि साहित्य रसिक पाठकों को अनेक विकल्प मिल सकें तथा साहित्य-सृजन के विभिन्न आयामों से वे सूचित हो सकें।
यदि हमारे द्वारा किए गए इस प्रयास से आपको कोई आपत्ति है तो कृपया संबंधित प्रस्तुति के अंक में अपनी टिप्पणी के ज़रिये या हमारे ब्लॉग पर प्रदर्शित संपर्क फ़ॉर्म के माध्यम से हमें सूचित कीजिएगा ताकि आपकी रचना का लिंक प्रस्तुति से विलोपित किया जा सके।
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
#रवीन्द्र_सिंह_यादव
प्रणाम शास्त्री जी, हमने इस बार मिट्टी के दीये ही जलाये आपकी आज्ञानुसार । गोवर्धन पूजा की हार्दिक शुभकामनायें
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