![]() चौमासे में आसमान में, घिर-घिर बादल आये रे! श्याम-घटाएँ विरहनिया के, मन में आग लगाए रे!! -- उनके लिए सुखद चौमासा, पास बसे जिनके प्रियतम, कुण्ठित है उनकी अभिलाषा, दूर बसे जिनके साजन , बैरिन बदली खारे जल को, नयनों से बरसाए रे! श्याम-घटाएँ विरहनिया के, मन में आग लगाए रे!! -- पुरवा की जब पड़ीं फुहारें, ताप धरा का बहुत बढ़ा, मस्त हवाओं के आने से , मन का पारा बहुत चढ़ा, नील-गगन के इन्द्रधनुष भी, मन को नहीं सुहाए रे! श्याम-घटाएँ विरहनिया के, मन में आग लगाए रे!! -- जिनके घर पक्के-पक्के हैं, बारिश उनका ताप हरे, जिनके घर कच्चे-कच्चे हैं, उनके आँगन पंक भरे, कंगाली में आटा गीला, हर-पल भूख सताए रे! श्याम-घटाएँ विरहनिया के, मन में आग लगाए रे!! -- |
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गुरुवार, 7 जुलाई 2022
गीत "इन्द्रधनुष भी मन को नहीं सुहाए रे" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
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वर्षा ऋतु का मनोहारी वर्णन!
जवाब देंहटाएंनमस्ते,
जवाब देंहटाएंआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा शुक्रवार 08 जुलाई 2022 को 'आँगन में रखी कुर्सियाँ अब धूप में तपती हैं' (चर्चा अंक 4484) पर भी होगी। आप भी सादर आमंत्रित है। 12:01 AM के बाद आपकी प्रस्तुति ब्लॉग 'चर्चामंच' पर उपलब्ध होगी।
हृदयस्पर्शी विरह गीत !!
जवाब देंहटाएंवर्षा ऋतु के भावपूर्ण दृश्य के साथ जिन लोगों के लिए परेशानी का सबब बनती है बारिश उनका भी ज़िक्र किया है । मन को छू लेने वाला गीत ।
जवाब देंहटाएंबहुत ही सुंदर हृदयस्पर्श सृजन।
जवाब देंहटाएंसादर
बहुत अच्छी प्रस्तुति.
जवाब देंहटाएं