बात लगभग 40 साल पुरानी है। तब मेरा निवास नेपाल की सीमा पर
स्थित बनबसा में था। उन दिनों नेपाल में मेरा हम-वतन प्रीतम लाल पहाड़ में खच्चर
लादने का काम करता था। इनका परिवार भी इनके साथ ही पहाड़ में किराये के झाले में
रहता था। कुछ दिनों के बाद इनका अपने घर नजीबाबाद के पास
गाँव में जाने का कार्यक्रम था। अतः रास्ते में मेरा घर होने के कारण मिलने के
लिए आये। औपचारिकतावश्
चाय नाश्ता बनाया गया। प्रीतम की लड़की चाय बना कर लाई। परन्तु उसने चाय
को बना कर छाना ही नही। पहले सभी को निथार कर चाय परोसी गई। नीचे बची चाय
को उसने अपने छोटे भाई बहनों के कपों में उडेल दिया। सभी लोग चाय पीने लगे। लेकिन प्रीतम के बच्चों ने चाय पीने के बाद चाय
पत्ती को भी मजा लेकर खाया। ये लोग अब बस से जाने की तैयारी में थे कि प्रीतम ने मुझसे
कहा कि डॉ. साहब कल से भूखे हैं। हमें 2-2 रोटी तो खिला ही दो। मैंने कहा- ‘‘जरूर।’’ श्रीमती ने पराँठे बनाने शुरू किये तो मैंने कहा
कि इनके लिए रास्ते के लिए भी पराँठे रख देना। अब प्रीतम और उसके परिवार ने पराँठे खाने शुरू
किये। वो सब इतने भूखे थे कि पेट जल्दी भरने के चक्कर में दो पराँठे एक साथ हाथ
में लेकर डबल-टुकड़े तोड़-तोड़ कर खाने लगे। उस दिन मैंने देखा कि भूख और निर्धनता क्या होती है। |
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बुधवार, 24 अगस्त 2022
"लघुकथा-भूख" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
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आदरणीय शास्त्री जी, खूख क्या होती है यह वास्तव में जिसे भूखे रहना पड़ा हो वी ही समझ सकता है। आप और हम जैसे तो दूसरों के देख कर सिर्फ अंदाज ही लगा पा सकते हसि। सोचिये उस परिवार को भूखे देख कर ही आपको इतना खराब लगा तो जो लोग वास्तव में भूखे थे उन पर क्या बीती होगी?
जवाब देंहटाएंजी नमस्ते ,
जवाब देंहटाएंआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल गुरुवार (२५-०८ -२०२२ ) को 'भूख'(चर्चा अंक -४५३२) पर भी होगी।
आप भी सादर आमंत्रित है।
सादर
मर्मस्पर्शी लघुकथा
जवाब देंहटाएंभूखा ही समझ सकता है कि भूख होती क्या है...
जवाब देंहटाएंबहुत ही हृदयस्पर्शी लघुकथा ।
चाय पत्ती चबाने की बात चुभने वाली है
जवाब देंहटाएंसच से परिपूर्ण रचना
जवाब देंहटाएं