-- सीखो सबक विनाश से, समझो कुछ संकेत। बंजर पल भर में बनें, राजनीति के खेत।। -- सबको अपनी ही पड़ी, जाय भाड़ में देश। जनता का धन खा रहे, कब से उजले वेश।। -- शस्यश्यामला धरा से, नष्ट हो रहे फूल। उपवन में उगने लगे, काँटे और बबूल।। -- एक जरा सी चूक से, जनता में है रोष। एक दूसरे पर सभी, लगा रहे हैंं दोष।। -- उपवन में सूखा पड़े, या आये सैलाब। साथ-साथ दोनों रहें, काँटे और गुलाब।। -- जनमानस की है यहाँ, याददाश्त कमजोर। इसीलिए हैं जीतते, लोकतन्त्र में चोर।। -- संघर्षों के काल में, लोग हुए मजबूर। अपनों से होने लगे, अपने ही अब दूर।। -- |
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गुरुवार, 25 अगस्त 2022
दोहे "याददाश्त कमजोर" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
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bahut sundar rachna,.. hamesha ki tarah!
जवाब देंहटाएंनमस्ते,
जवाब देंहटाएंआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा शुक्रवार 26 अगस्त 2022 को 'आज महिला समानता दिवस है' (चर्चा अंक 4533) पर भी होगी। आप भी सादर आमंत्रित है। 12:01 AM के बाद आपकी प्रस्तुति ब्लॉग 'चर्चामंच' पर उपलब्ध होगी।
वाह
जवाब देंहटाएंबहुत सुंदर दोहे
जनमानस की है यहाँ, याददाश्त कमजोर।
जवाब देंहटाएंइसीलिए हैं जीतते, लोकतन्त्र में चोर।।
--
संघर्षों के काल में, लोग हुए मजबूर।
अपनों से होने लगे, अपने ही अब दूर।।
..बहुत सही बात .
सुंदर दोहे
जवाब देंहटाएंबहुत सुंदर सृजन आदरणीय।
जवाब देंहटाएंभाव प्रवण दोहे।
बहुत सुंदर दोहे सर।
जवाब देंहटाएंसादर