ऊसर जमीन में हम, उपहार बो रहे हैं।
हम गीत और ग़ज़ल के उदगार ढो रहे हैं।।
बन कर सजग सिपाही, हम दे रहे हैं पहरे,
हम मेटने चले हैं, पर्वत के दाग गहरे,
उनको जगा रहे हैं, थककर जो सो रहे
हैं।
हम गीत और ग़ज़ल के उदगार ढो रहे हैं।।
तूफान आँधियों में, हमने दिये जलाये,
फानूस बन गये हम, जब दीप झिलमिलाये,
उनको गले लगाते, जो ख़ार हो रहे हैं।
हम गीत और ग़ज़ल के उदगार ढो रहे हैं।।
मनके सभी पिरोये, टूटे सुजन मिलाये.
वीरान वाटिका में, रूठे सुमन खिलाये,
माला के तार में हम, अब प्यार पो रहे
हैं।
हम गीत और ग़ज़ल के उदगार ढो रहे हैं।।
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मंगलवार, 15 जनवरी 2013
"ऊसर ज़मीन" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
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माला के तार में हम, अब प्यार पो रहे हैं।kya baat kahe....wah.
जवाब देंहटाएंसुन्दर सरल अभिव्यक्ति सरजी .
जवाब देंहटाएंसुन्दर सार्थक भावनात्मक अभिव्यक्ति ”ऐसी पढ़ी लिखी से तो लड़कियां अनपढ़ ही अच्छी .”
जवाब देंहटाएंआप भी जाने @ट्वीटर कमाल खान :अफज़ल गुरु के अपराध का दंड जानें .
सुन्दर विचार |
जवाब देंहटाएंसस्वर पढ़ा -
आभार गुरु जी-
माला के तार में हम, अब प्यार पो रहे हैं।
जवाब देंहटाएंहम गीत और ग़ज़ल के उदगार ढो रहे हैं।।...बहुत खुबसूरत भाव...आभार
"बन कर सजग सिपाही, हम दे रहे हैं पहरे,
जवाब देंहटाएंहम मेटने चले हैं, पर्वत के दाग गहरे,
उनको जगा रहे हैं, थककर जो सो रहे हैं।"
शानदार प्रस्तुति !!
जवाब देंहटाएंशानदार,बहुत खूब !
जवाब देंहटाएंकाट लिये सब पेड़ धरा से,
जवाब देंहटाएंप्यारी छाँह कहाँ से लायें..
बहुत प्रभावी प्रस्तुति...
जवाब देंहटाएंबहुत खूब शास्त्री साहब.
जवाब देंहटाएंवाह ... बहुत ही बढिया ।
जवाब देंहटाएं