मित्रों!
आज एक पुरानी ग़ज़ल आपकी सेवा में प्रस्तुत कर रहा हूँ! हम गधे इस देश के है, घास खाना जानते हैं।
लात भूतों के सहजता से, नहीं कुछ
मानते हैं।।
मुफ्त का खाया हमॆशा, कोठियों में
बैठकर.
भाषणों से खेत में, फसलें उगाना
जानते हैं।
कृष्ण की मुरली चुराई, गोपियों के
वास्ते,
रात-दिन हम, रासलीला को रचाना
जानते हैं।
राम से रहमान को, हमने लड़ाया
आजतक,
हम मज़हव की आड़ में, रोटी पकाना
जानते हैं।
देशभक्तों को किया है, बन्द हमने
जेल में,
गीदड़ों की फौज से, शासन चलाना
जानते हैं।
सभ्यता की ओढ़ चादर, आ गये
बहुरूपिये,
छद्मरूपी “रूप” से, दौलत कमाना जानते हैं।
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मंगलवार, 22 जनवरी 2013
"ग़ज़ल-गधे इस देश के" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
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उम्दा !!
जवाब देंहटाएंवास्तविक गधों का अपमान हो रहा है शास्त्री जी !हां ..हा ..हा..
जवाब देंहटाएंNew post कुछ पता नहीं !!! ( तृतीय और अंतिम भाग )
New post : शहीद की मज़ार से
आज की भ्रष्ट राजनीति पर व्यंगात्मक सुंदर प्रस्तुति।
जवाब देंहटाएंकितनी सच बात कही ,बहुत सुन्दर !
जवाब देंहटाएंबिलकुल सही-
जवाब देंहटाएंबढ़िया अभिव्यक्ति-
शुभकामनायें आदरणीय ||
Very appropriate Gazal for Now a days.
जवाब देंहटाएंसत्य वचन...सौ टका..
जवाब देंहटाएंसच बात,बहुत सुन्दर अभिव्यक्ति!
जवाब देंहटाएंराम से रहमान को, हमने लड़ाया आजतक,
हम मज़हव की आड़ में, रोटी पकाना जानते हैं।
देशभक्तों को किया है, बन्द हमने जेल में,
गीदड़ों की फौज से, शासन चलाना जानते हैं।
इस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.
जवाब देंहटाएंरचना में एक दम सही बात कही है |गधों की तो बात ही निराली !-
जवाब देंहटाएंचुरा के चरना घास, दुलत्ती और मारना |
'ढेंचू ढेंचू' कर के भाषण रोज़ झाडना ||
प्रपन्च वाली कूट नीति' में कितने माहिर-
छल से हारी बाजी जीत के डींग हांकना ||
बहुत बढिया जी
जवाब देंहटाएंgadhe bhee mahaan hain..kitna bojh dhote hain!
जवाब देंहटाएंफूट डालो और शासन करो, अंग्रेज ही सिखा कर चले गये हैं..
जवाब देंहटाएंसामयिक प्रासंगिक दो टूक ,शर्म शिन्दों को फिर भी नहीं आती .
जवाब देंहटाएंहम गधे इस देश के है, घास खाना जानते हैं।
लात भूतों के सहजता से, नहीं कुछ मानते हैं।।
मुफ्त का खाया हमॆशा, कोठियों में बैठकर.
भाषणों से खेत में, फसलें उगाना जानते हैं।
कृष्ण की मुरली चुराई, गोपियों के वास्ते,
रात-दिन हम, रासलीला को रचाना जानते हैं।
राम से रहमान को, हमने लड़ाया आजतक,
हम मज़हव की आड़ में, रोटी पकाना जानते हैं।
देशभक्तों को किया है, बन्द हमने जेल में,
गीदड़ों की फौज से, शासन चलाना जानते हैं।
सभ्यता की ओढ़ चादर, आ गये बहुरूपिये,
छद्मरूपी “रूप” से, दौलत कमाना जानते हैं।
आप तो गजब ढाते जा रहे हैं।
जवाब देंहटाएंबहुत खूब शास्त्री जी।
जवाब देंहटाएंसुंदर प्रस्तुति...
जवाब देंहटाएंधन्यवाद !
जवाब देंहटाएंगधे ने गधे से कही बात एक दिन,
धर्म शास्त्र में मै तो रहता सब दिन||
माया चक्र में फसा काल कूटनी मीन ?
गधा कहता गधा हो हम तेरा जींन ||
हम गधे इस देश के है, घास खाना जानते हैं।
जवाब देंहटाएंलात भूतों के सहजता से, नहीं कुछ मानते हैं।।
बहुत ही खरी खरी बातें कह दी है आपने ,शास्त्री जी
बहुत सुन्दर प्रस्तुति.....
जवाब देंहटाएंगणतन्त्र दिवस की शुभकामनाएँ।
बधाई, पुस्तक विमोचन समारोह
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