जब मन्दिर-मस्जिद जलते हैं,मैं तब-तब पागल होता हूँ।
जब
जूते-चप्पल चलते हैं, मैं तब-तब पागल होता हूँ।।
त्योहारों
की परम्परा में, दीन-धर्म जब आता है,
भाषण
के शोले दाग जहाँ दंगा भड़काया जाता है,
जब
आग उगलते हैं मौसम, मैं तब-तब पागल होता हूँ।
जब
जूते-चप्पल चलते हैं, मैं तब-तब पागल होता हूँ।।
कूड़ा-कचरा
बीन जहाँ पर, बालक घर-बार चलाते हैं,
पढ़ने-लिखने
की आयु में, जीवन को वृथा गँवाते हैं,
जब
बचपन आँखें मलते हैं,मैं तब-तब पागल होता हूँ।
जब
जूते-चप्पल चलते हैं, मैं तब-तब पागल होता हूँ।।
जिसको
होता दर्द, वही तो उसकी पीड़ा को जाने,
जिसको
कभी नही होता, वो कैसे उसको पहचाने,
जब
सर्प बाँह में पलते हैं,मैं तब-तब पागल होता हूँ।
जब
जूते-चप्पल चलते हैं, मैं तब-तब पागल होता हूँ।।
लोकतन्त्र
का जहाँ खुला उपहास उड़ाया जाता हो,
परिवारतन्त्र को राजतन्त्र का रुधिर चढ़ाया जाता हो,
जब ज़ाम सदन में
ढलते हैं,मैं तब-तब पागल होता हूँ।
जब
जूते-चप्पल चलते हैं, मैं तब-तब पागल होता हूँ।।
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बुधवार, 10 अप्रैल 2013
"मैं तब-तब पागल होता हूँ" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री ‘मयंक’)
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पागल कर देने वाली स्थिति ही आ गयी है आदरणीय,आज देश की दुर्दशा देख रोना आता है.
जवाब देंहटाएंपांवों में नित चुभ रहे, राजनीति के शूल।
‘राज’ राज होकर रहा, गया नीतियां भूल॥
विह्वल करते भाव ||
जवाब देंहटाएंआभार गुरूजी ||
हर संवेदनशील इंसान की आज यही मनोदशा है सर जी ! बहुत उम्दा वर्णन किया आपने !
जवाब देंहटाएंआपकी यह प्रस्तुति कल के चर्चा मंच पर है
जवाब देंहटाएंकृपया पधारें
बहुत अच्छी प्रस्तुति डा. साहब
जवाब देंहटाएंसच में क्रोध बहुत आता है,
जवाब देंहटाएंझूठ अगर चिल्लाता है।
देख कर दिमाग सच में असंतुलित होने लगता है!
जवाब देंहटाएंलोकतन्त्र का जहाँ खुला उपहास उड़ाया जाता हो,
जवाब देंहटाएंपरिवारतन्त्र को राजतन्त्र का रुधिर चढ़ाया जाता हो
वाह वाह …………शानदार प्रस्तुति
जवाब देंहटाएंक्या बात, बहुत सुंदर रचना
जवाब देंहटाएंबहुत सुंदर
बहुत अच्छी रचना।
जवाब देंहटाएंप्रभावी अभिव्यक्ति!
जवाब देंहटाएंसच में! ऐसी स्थितियाँ पागल ही कर देतीं हैं....
~सादर!!!