-- शब्दों का भण्डार नहीं है, फिर भी कलम चलाता हूँ। कोरे पन्नों को स्याही से, काला ही कर पाता हूँ।। -- “रूप” नहीं है, रंग नहीं है, भाव नहीं है, छन्द नहीं है। मेरे कागज के फूलों में, कोई गन्ध-सुगन्ध नहीं है। आड़ी-तिरछी रेखाओं से, अपनी फसल उगाता हूँ। कोरे पन्नों को स्याही से, काला ही कर पाता हूँ।। -- सिद्ध नहीं हूँ, सिद्धि नहीं है, मस्तक तो है, बुद्धि नहीं है। मिली मुझे बंजर वसुधा है, जीवन तो है, ऋद्धि नहीं है। अँखियों के खारे पानी को, मुखड़े पर ढलकाता हूँ। कोरे पन्नों को स्याही से, काला ही कर पाता हूँ।। -- भूखा सारा कुटुम-कबीला, कंगाली में आटा गीला। कालचक्र है जटिल जलेबी, धरती के ऊपर नभ नीला। झंझावातों की चक्की में, मैं तो पिसता जाता हूँ। कोरे पन्नों को स्याही से, काला ही कर पाता हूँ।। -- मैं हूँ साधक तेरा माता, तन-मन से तेरा उद्गाता। आया हूँ मैं द्वारे तेरे, दूर करो अब संकट मेरे। तेरे चरणों में माता, मैं अपना शीश नवाता हूँ। कोरे पन्नों को स्याही से, काला ही कर पाता हूँ।। -- |
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बहुत खूब !
जवाब देंहटाएंआपकी इस प्रस्तुति का लिंक 08.10.2020 को चर्चा मंच पर दिया जाएगा। आपकी उपस्थिति मंच की शोभा बढ़ाएगी|
जवाब देंहटाएंधन्यवाद
दिलबागसिंह विर्क
भूखा सारा कुटुम-कबीला,
जवाब देंहटाएंकंगाली में आटा गीला।
कालचक्र है जटिल जलेबी,
धरती के ऊपर नभ नीला।
झंझावातों की चक्की में, मैं तो पिसता जाता हूँ।
कोरे पन्नों को स्याही से, काला ही कर पाता हूँ।।
-सार्थक सामयिक प्रस्तुति... वन्दन-साधुवाद
भावपूर्ण प्रार्थना !
जवाब देंहटाएंकलम का सतत चलते रहना ही परमात्मा की असीम कृपा है ।
जवाब देंहटाएंशब्दों का भण्डार नहीं है, फिर भी कलम चलाता हूँ।
जवाब देंहटाएंकोरे पन्नों को स्याही से, काला ही कर पाता हूँ।।
बहुत ही शानदार और सार्थक रचना
बहुत सुंदर वंदना 🙏💐🙏
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