जब भी पुरवा बयार आती है ज़िन्दगी खूब खिलखिलाती है -- जब भी बादल फलक घिरते हैं याद साजन की तब सताती है -- जब भी भँवरे गुहार करते हैं तब कली खुल के मुस्कराती है -- सर्दियाँ शीत जब उगलतीं हैं चाँदनी भी कहर सा ढाती है -- ज़िन्दगीभर सफर में रहना है मंज़िलें हाथ नहीं आती है -- आज जो है वो कल नहीं रहता रास्ते जिन्दगी बनाती है -- हुस्न रहता नहीं सलामत है 'रूप' की धूप ढलती जाती है -- |
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गुरुवार, 8 अक्तूबर 2020
ग़ज़ल "रूप की धूप ढलती जाती है" (डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
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आज जो है वो कल नहीं रहता
जवाब देंहटाएंरास्ते जिन्दगी बनाती है...
बहुत ही सार्थक रचना
हुस्न रहता नहीं सलामत है
जवाब देंहटाएं'रूप' की धूप ढलती जाती है
–फिर गुमान क्यों कर लेती है...
सुन्दर-सुन्दर अशआर सभी
नमन व साधुवाद
यही जीवन -व्यवहार है.
जवाब देंहटाएंप्रणाम शास्त्री जी, ज़िन्दगीभर सफर में रहना है
जवाब देंहटाएंमंज़िलें हाथ नहीं आती है..क्या खूब लिखाा है ..आपके दोहे लाजवाब होते हैं
नश्वर संसार में सब नश्वर है
जवाब देंहटाएंबहुत अच्छी प्रस्तुति
जिंदगी भर सफर में रहना है
जवाब देंहटाएंमंजिले हाथ नहीं आती
यथार्त आदरणीय शास्त्री जी
बेहतरीन सर ।
जवाब देंहटाएंज़िन्दगीभर सफर में रहना है
जवाब देंहटाएंमंज़िलें हाथ नहीं आती है
आज जो है वो कल नहीं रहता
रास्ते जिन्दगी बनाती है
बेहद शानदार शेर
बहुत खूब
जवाब देंहटाएंबहुत सुंदर और सार्थक ग़ज़ल।
जवाब देंहटाएं