भूमिका ‘‘नागफनी के फूल’’ अनुपम दोहा कृति हिन्दी साहित्य में
दोहा छन्द का अपना गौरवशाली इतिहास है। सन्तों की वाणी से निकले संदेश आज भी सतत
रूप से लोक में व्याप्त हैं और उनका माध्यम दोहा छंद ही बना है। दोहा अर्द्ध सम
मात्रिक छन्द है, जिसमें तेरह-ग्यारह, तेरह-ग्यारह अर्थात एक दोहे में 48 मात्रओं वाले इस छोटे से छंद की शक्ति मर्म को छूने
तथा लक्ष्य भेदन में पूर्ण रूप से सफल होती है। क्योंकि एक दोहे में सीमित
शब्दों में पूरी बात कहना कवि का धर्म होता है अगर एक बात एक दोहे में पूरी नहीं
हुई तो फिर वह दोहा दोहे के रूप में स्थापित नहीं हो सकता। हिन्दी के परम विद्वान और दोहा छन्द के विशेषज्ञ आदरणीय डॉक्टर रूपचन्द्र शास्त्री ‘मयंक’ जी की नवीन दोहा कृति "नागफनी के फूल" पढ़कर जो आनन्द की अनुभूति हुई वह अतुलनीय है। इस संग्रह का हर एक दोहा, दोहे के व्याकरण पर खरा उतरता है। कवि ने पुस्तक का प्रारम्भ माँ शारदे की वन्दना से किया है जो उनके आस्तिक होने का प्रमाण है। नूतन छंदों का मुझे दो अनुपम उपहार।।’ कवि की विनयशीलता का परिचय यह दोहा दृष्टव्य है- ‘‘तुक लय गति का है नहीं, मुझको कुछ भी ज्ञान। मेधावी मुझको करो, मैं मूरख नादान।।’’ महाकवि चन्दबरदाई ने
माँ सरस्वती की आराधना बुद्धि प्रदायिनी देवी के साथ शक्ति प्रदायिनी के रूप में
इस प्रकार की है- ‘चिंता विघ्न विनाशिनी, कमला सनी शकत्त। हंस वाहिनी बीस हथ, माता देहु सुमत्त।।’ डॉ. रूपचन्द्र जी
शास्त्री ‘मयंक’ ने भी इसी तरह माँ वाणी की वन्दना वर्तमान हालात को
दृष्टिगत रखते हुए यह दोहा लिखकर की है जो अति सराहनीय है - ‘‘युगों युगों से सुन रहा, युग वीणा झंकार। अब माला के साथ माँ भाला भी लो धार।।’’ कवि ने आज के सामाजिक
परिवेश का खूबसूरत चित्रण करते हुए लिखा है- ‘‘मन के घोड़े पर हुआ, लालच आज सवार। मधुमक्खी सा हो गया, लोगों का व्यवहार।।’’ विराट व्यक्तित्व के
धनी डॉ. रुपचन्द्र जी शास्त्री ‘मयंक’ गीत, गजल, दोहा, अनुवाद, बालगीत, साहित्यिक शिक्षक और समीक्षक
आदि के रूप में ब्लॉग लेखन के एक सशक्त हस्ताक्षर हैं। घमण्ड से दूर इसका श्रेय
भी मित्रों को देते हैं- ‘‘देते मुझको हौसला, कदम कदम पर मीत। बन जाते हैं इसलिए, गजलें दोहे गीत।।’’ दोहाकार को पृथ्वी, पर्यावरण, मानव जीवन, तथा जीव जगत की चिन्ता सताती है और वो लिखते हैं- ‘‘जहरीला खाना हुआ, जहरीला है नीर। देश और परिवेश की हालत है गंभीर।। पेड़ काटता जा रहा, धरती का इंसान। इसीलिए आने लगे, चक्रवात तूफान।। कैसे रक्खें संतुलन, थमता नहीं उबाल। पापी मन इंसान का, करता बहुत बवाल।।’’ ईश्वर रचित ब्रह्माण्ड
के रहस्य की परतें खोलने में मनुष्य आदि काल से लगा हुआ है और आश्चर्यचकित रह
जाता है। इस पर कवि लिखता है - ‘‘लिए अजूबे साथ में, कुदरत की करतूत। आलू धरती में पलें, डाली पर शहतूत।।’’
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गुरुवार, 15 अक्तूबर 2020
भूमिका "दोहासंग्रह-नागफनी के फूल" (जय सिंह आशावत)
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नागफणी के फूल दोहा कृति की बहुत बहुत बधाई, आदरणीय शास्त्री जी।
जवाब देंहटाएंजी नमस्ते ,
जवाब देंहटाएंआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शनिवार (१७-१०-२०२०) को 'नागफनी के फूल' (चर्चा अंक-३८५७) पर भी होगी।
आप भी सादर आमंत्रित है।
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अनीता सैनी
बधाई ।
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर समीक्षा...
जवाब देंहटाएंबधाई एवं शुभकामनाएं।