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आये थे हरि भजन को, ओटन लगे कपास।
कैसे जीवन में उगे, हास और परिहास।।
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बन्धन आवागमन का, नियम बना है खास।
अमर हुआ कोई नहीं, बता रहा इतिहास।।
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निर्बल का मत कीजिए, कभी कहीं उपहास।
आँधी में तूफान में, जीवित रहती घास।।
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तुलसी-सूर-कबीर की, मीठी-मीठी तान।
निर्गुण-सगुण उपासना, भूल गया इंसान।।
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ग्वाले मक्खन खा रहे, मोहन की ले ओट।
सत्ता के तालाब में, मगर रहे हैं लोट।।
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पोथीबुक पर अधिकतर, बातें हैं अश्लील।
भोली चिड़ियों को यहाँ, लील रही हैं चील।।
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मुखपोथी के सामने, बड़े-बड़े लाचार।
मतलब के सब लोग हैं, मतलब का सब प्यार।।
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बुधवार, 1 जुलाई 2020
दोहे "जीवित रहती घास" (डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
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आपकी इस प्रस्तुति का लिंक 2.7.2020 को चर्चा मंच पर चर्चा -3750 पर दिया जाएगा। आपकी उपस्थिति मंच की शोभा बढ़ाएगी।
जवाब देंहटाएंधन्यवाद
दिलबागसिंह विर्क
बड़ी काम की सीख
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