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रिमझिम-रिमझिम पड़ीं फुहारे।
बारिश आई अपने द्वारे।।
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तन-मन में थी भरी पिपासा,
धरती का था आँचल प्यासा,
झुलस रहे थे पौधे प्यारे।
बारिश आई अपने द्वारे।।
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आँधी आई, बिजली कड़की,
जोर-जोर से छाती धड़की,
अँधियारे ने पाँव पसारे।
बारिश आई अपने द्वारे।।
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जल की मोटी बूँदें आयी,
चौमासे ने अलख जगाई,
खुशी मनाते बालक सारे।
बारिश आई अपने द्वारे।।
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अब मौसम हो गया सुहाना,
आम रसीले जमकर खाना,
पर्वत से बह निकले धारे।
बारिश आई अपने द्वारे।।
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शुक्रवार, 10 जुलाई 2020
बालकविता "पर्वत से बह निकले धारे" (डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
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बहुत सुंदर बाल कविता सर।
जवाब देंहटाएंप्रणाम।
सादर।
इस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.
जवाब देंहटाएंबहुत बढ़िया प्रस्तुति सर
जवाब देंहटाएंजी नमस्ते ,
जवाब देंहटाएंआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शनिवार (११-०७-२०२०) को 'बुद्धिजीवी' (चर्चा अंक- ३५६९) पर भी होगी।
आप भी सादर आमंत्रित है
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अनीता सैनी
वाह बहुत सुंदर बाल कविता आदरणीय
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर बाल कविता....
जवाब देंहटाएंवाह बहुत सुंदर बाल कविता सुंदर मनभावन।
जवाब देंहटाएं