हरियाली का ओढ़ दुशाला।
हरी-भरी हैं पर्वतमाला।।
ऊपर आसमान नीला है,
घाटी में बहती जल धारा।
देवदार के वृक्ष झूमते,
चट्टानों ने रूप निखारा।
तन-मन को शीतलता देता,
कुदरत का ये रंग निराला।
हरियाली का ओढ़ दुशाला।
हरी-भरी हैं पर्वतमाला।।
मड़वा और गहत की खेती,
काफल हैं सबके मन भाते।
तेजपात फल-फूल रहे हैं,
अगर-तगर हैं गन्ध लुटाते।
अनुपम छटा देखकर सबका,
हो जाता है मन मतवाला।
हरियाली का ओढ़ दुशाला।
हरी-भरी हैं पर्वतमाला।।
मखमल जैसी प्यारी-प्यारी
सुन्दर लगती हैं ये सीढ़ी।
हम पहाड़ के बाशिन्दें हैं,
सीधी-सादी अपनी पीढ़ी।
इसी लिए तो शंकर जी ने,
इन शिखरों पर डेरा डाला।
हरियाली का ओढ़ दुशाला।
हरी-भरी हैं पर्वतमाला।।
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शुक्रवार, 15 मार्च 2013
"हरी-भरी हैं पर्वतमाला" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
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सटीक अभिव्यक्ति-
जवाब देंहटाएंआभार गुरूजी-
सुंदर pic के साथ सुंदर प्रस्तुति गुरु जी
जवाब देंहटाएंहरियाली का ओढ़ दुशाला।
जवाब देंहटाएंहरी-भरी हैं पर्वतमाला।। ,,,बहुत सुन्दर पंक्तियाँ..आभार
आपकी इस प्रविष्टी की चर्चा शनिवार (16-3-2013) के चर्चा मंच पर भी है ।
जवाब देंहटाएंसूचनार्थ!
हरियाली का ओढ़ दुशाला।
जवाब देंहटाएंहरी-भरी हैं पर्वतमाला।।
अनुपम भाव ...
प्रकृति की सुन्दर छबि -गीत में
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर शब्द चित्र....
जवाब देंहटाएंprakriti ki tasbir ko jivant karti prastuti
जवाब देंहटाएंसुंदर अभिव्यक्ति. सच कहा आपने
जवाब देंहटाएंआज की मेरी नई रचना
एक शाम तो उधार दो
bahut badhiya dil khush ho gaya .....
जवाब देंहटाएंप्रकृति को नमन...सुंदर कविता..
जवाब देंहटाएं