बुड्ढों के हैं ढंग निराले
बूढ़े हैं ज़वान दिल वाले
आये जवानी हाय कहाँ से
अंग हो गये ढीले-ढाले
घुटने थके-जोड़ दुखते हैं
फिर भी इनके मन मतवाले
नकली दाँत-आँख भी नकली
चेहरे हुए झुर्रियों वाले
साली अब भी अच्छी लगतीं
नहीं सुहाते इनको साले
अंकल (चाचा) सम्बोधन भाता
है
बाबा सुन कर आँख निकाले
चाहे चाँद भले गंजी हो
बाल किए हैं फिर भी काले
"रूप" देखकर राल टपकती
इनको तो अब राम संभाले
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बुधवार, 6 मार्च 2013
"बूढ़ी ग़ज़ल-हास्य" (डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
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वाह आदरणीय सर वाह कितना सुन्दर व्यंग कसा है, सत्य एवं सटीक कटाक्ष हार्दिक बधाई स्वीकारें.
जवाब देंहटाएंHa-ha..
जवाब देंहटाएंवाह वाह पू्रा सही हाल बयाँ कर दिया :)
जवाब देंहटाएंबहुत बढ़िया कटाक्ष ,महोदय
जवाब देंहटाएंसाभार............
behtreen gazal.
जवाब देंहटाएं'पक्का माल चबाना चाहें,मुहँ में नहीं हैं दांत !
जवाब देंहटाएं'चिकनी चुपड़ी अच्छी लागे, पेट में नहीं है आँत !!
बहुत ही अच्छी मजाहिया पेश कश !!
जवाब देंहटाएंbahut sundar,aap sir ji ham logo ko pol bhi khol de raha hai,(bal kala)
जवाब देंहटाएंआपने तो बड़ा ही शानदार खाका खींच दिया.
जवाब देंहटाएंआज तो व्यंग्य मार दिया है। बढिया है।
जवाब देंहटाएंबहुत खूब आपके एक दम सटीक आकलन करती
जवाब देंहटाएंआज की मेरी नई रचना आपके विचारो के इंतजार में
तुम मुझ पर ऐतबार करो ।
वाह गुरु जी वाह-
जवाब देंहटाएंक्या कहने है इस ग़ज़ल के बारे में!! शानदार और उससे भी ज्यादा मजेदार :)
जवाब देंहटाएंनये लेख :- समाचार : दो सौ साल पुरानी किताब और मनहूस आईना।
एक नया ब्लॉग एग्रीगेटर (संकलक) : ब्लॉगवार्ता।
आपकी उत्कृष्ट प्रस्तुति शुक्रवारीय चर्चा मंच पर ।।
जवाब देंहटाएंवाह जी वाह ...मज़ा आ गया
जवाब देंहटाएंवाह, बहुत खूब खींचा है।
जवाब देंहटाएंकुछ लोग कभी नहीं बदलते ....आदतें साथ-साथ चलती है मरते दम तक ,,..
जवाब देंहटाएंबढ़िया कटाक्ष ..