ख़ास तो है
सुखी, आम ही है दुखी,
आम के वास्ते अब कहाँ तन्त्र है?
सर्प के दंश की
तो दवा हैं बहुत,
आदमी के डसे का
नही मन्त्र है।।
गन्ध देना ही
है पुष्प का व्याकरण,
दूध देना ही है
गाय का आचरण,
तोल और माप के
तो हैं मीटर बहुत,
प्यार को नापने
का नहीं यन्त्र है।
आदमी के डसे का
नहीं मन्त्र है।।
ईद, होली, दिवाली के त्योहार में,
दम्भ की है
मिलावट भरी प्यार में,
आ गया हैं
विदेशों का पागल पवन,
छल-कपट से भरा
आज जनतन्त्र है।
आदमी के डसे का
नहीं मन्त्र है।
नींव कमजोर हैं पर इमारत खड़ी,
शून्य से हो
रहीं हैं इबारत बड़ी,
राम के राज में
आज रावण बहुत,
झूठ आजाद है, सत्य परतन्त्र है।
आदमी के डसे का
नही मन्त्र है।।
|
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रविवार, 7 सितंबर 2014
‘‘आम के वास्ते अब कहाँ तन्त्र है’’ (डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री ‘मयंक’)
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वाह बढ़िया :)
जवाब देंहटाएंईद, होली, दिवाली के त्योहार में,
जवाब देंहटाएंदम्भ की है मिलावट भरी प्यार में,
आ गया हैं विदेशों का पागल पवन,
छल-कपट से भरा आज जनतन्त्र है।
आदमी के डसे का नहीं मन्त्र है।
रचना बेहद अर्थपूर्ण है लेकिन हर बात के लिए हर छद्म आचरण के लिए विदेशों (पश्चिम )को कोसना समीचीन प्रतीत नहीं होता आखिर आप पश्चिम के जीवन यापन नियम विधान से कितना परिचित हैं। अमरीका की तो हम जानते हैं जो लीडर है शेष विश्व का यहां सबके लिए एक विधान है एक तंत्र है एक सिस्टम है जिसे सब फॉलो करते हैं किसी ओबामा या मिशेल को यहां कैसी भी छूट नहीं है नियम यहां नियम हैं। टूटने के लिए नहीं बना है।
arthpurn aur sarthak kavita
जवाब देंहटाएंआदरणीय शास्त्री जी, सादर नमन! सुंदर काव्य-रचना के लिए बधाई!
जवाब देंहटाएंधरती की गोद
क्या बात वाह!
जवाब देंहटाएं