उत्तर से दक्षिण को, भू पर।
बहती जल की धार निरन्तर।।
संसर्गों में जो भी आता,
तन-मन से पावन हो जाता,
अवगुण हो जाते छूमन्तर।
बहती जल की धार निरन्तर।।
सुनकर कलकल-छलछल के सुर,
आनन्दित हो जाता है उर,
निर्मल हो जाता है अन्तर।
बहती जल की धार निरन्तर।।
कुदरत का है साज अनोखा,
इसमें नही बनावट-धोखा,
चलता जाता चक्र निरन्तर।
बहती जल की धार निरन्तर।। |
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मंगलवार, 9 सितंबर 2014
"चलता जाता चक्र निरन्तर" (डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
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जवाब देंहटाएंइस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर !
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर !
जवाब देंहटाएंसुन्दर अभिव्यक्ति
जवाब देंहटाएंआपकी उत्कृष्ट प्रस्तुति बुधवार के - चर्चा मंच पर ।।
जवाब देंहटाएंsudar...............................
जवाब देंहटाएंhttp://hindikavitamanch.blogspot.in/
http://rishabhpoem.blogspot.in/
सुन्दर प्रस्तुति !
जवाब देंहटाएंरब का इशारा
कुदरत के खेल निराले ...
जवाब देंहटाएंबहुत बढ़िया
बेहतरीन लाजवाब रचना :)
जवाब देंहटाएंरंगरूट
सुंदर प्रस्तुति...
जवाब देंहटाएंदिनांक 11/09/2014 की नयी पुरानी हलचल पर आप की रचना भी लिंक की गयी है...
हलचल में आप भी सादर आमंत्रित है...
हलचल में शामिल की गयी सभी रचनाओं पर अपनी प्रतिकृयाएं दें...
सादर...
कुलदीप ठाकुर