शुरूआती दौर की एक रचना
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पागल हो तुम मेरी प्रेयसी,
मैं तुमको समझाऊँ कैसे?
सुलग-सुलगकर मैं जलता हूँ,
यह तुमको बतलाऊँ कैसे?
चन्दा और चकोरी जैसा,
मेरा और तुम्हारा नाता,
दोनों में है दूरी इतनी,
मिलन कभी नही है हो पाता,
दूरी की जो मजबूरी है,
मजबूरी जतलाऊँ कैसे?
पागल हो तुम मेरी प्रेयसी,
मैं तुमको समझाऊँ कैसे?
बाहर बजती हैं शहनाईं,
लेकिन अन्तर्मन रोता है,
सूख गये आँसू आँखों में ,
पर दिल में कुछ-कुछ होता है,
विरह व्यथा जो मेरे मन में,
बोलो उसे छिपाऊँ कैसे?
पागल हो तुम मेरी प्रेयसी,
मैं तुमको समझाऊँ कैसे?
बसन्त ऋतु में, सुमन खिलें हैं,
पर मन में मधुमास नही है,
लाश ढो रहा हूँ मैं अपनी,
जीवन में कुछ रास नही है,
कदम डगमगाते हैं अब तो,
अपनी मंजिल पाऊँ कैसे?
पागल हो तुम मेरी प्रेयसी,
मैं तुमको समझाऊँ कैसे?
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शनिवार, 27 सितंबर 2014
"मैं तुमको समझाऊँ कैसे" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
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यही है प्रेमचंदीय ग़ज़ल जहां यथार्थ ही काफ़िया है और यथार्थ ही है रदीफ़
जवाब देंहटाएंबहुत खूब ! मन की अभ्व्य्नजना !
जवाब देंहटाएंBhaawpurn prastuti....sunder bahut hi !!
जवाब देंहटाएंइतने सुन्दर शब्द समूह की रचना कि समझाऊं कैसे ,बहुत खूब
जवाब देंहटाएंआपने विरह को बहुत ही संजीदगी से पर बिना लाग लपेट और रोए धोए शानदार तरीके के प्रस्तुत करते हैं। शायद यही इस कविता का सौंदर्य है। बहुत अच्छा प्रयास। स्वयं शून्य
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