भारत की
सरकार का, कोई नहीं जवाब।
कोरोना के
काल में, बिकने लगी शराब।।
बदले-बदले
रंग हैं, बदले-बदले ढंग।
सामाजिक
कानून को, लोग कर रहे भंग।।
सामजिक
परिवेश की, हालत हुई विचित्र।
लोग दिखाने
लग गये, अपना चित्र-चरित्र।।
कोरोना से
है मचा, जग में हाहाकार।
होगी घर
में बैठकर, कोरोना की हार।।
कोरोना से
लड़ रहे, धन्वन्तरि के दूत।
सैनिक-पुलिस
जवान हैं, माँ के सच्चे पूत।।
कोरोना के
काल में, घर से होकर दूर।
दर-दर ठोकर
खा रहे, बेचारे मजबूर।।
|
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बुधवार, 6 मई 2020
दोहे "बिकने लगी शराब" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
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बेहतरीन दोहे
जवाब देंहटाएंआपकी इस प्रस्तुति का लिंक 7.5.2020 को चर्चा मंच पर चर्चा - 3694 में दिया जाएगा। आपकी उपस्थिति मंच की शोभा बढ़ाएगी।
जवाब देंहटाएंधन्यवाद
दिलबागसिंह विर्क
बहुत सुंदर समसामयिक रचना।
जवाब देंहटाएंबहुत अच्छी रचना
जवाब देंहटाएंसचमुच कोरोना काल में शराब दुकान खोलने का आदेश हास्यास्पद और ख़तरनाक है।
समाज के लगातार गिरते चरित्र की पहचान आखिरी में कोरोना नें ही करवा दी।
जवाब देंहटाएंबहुत ही सुंदर समसामयिक रचना आदरणीय ।
नमन आपको।
सामयिक दोहे
जवाब देंहटाएंजरुरत उलटे-सीधे काम करवा ही देती है
जवाब देंहटाएं