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आदतें अपनी बदलना सीखिए
जिन्दगी में साथ चलना सीखिए
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कंकड़ों और पत्थरों की राह में
ठोकरें खाकर सँभलना सीखिए
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दुःख और सुख जिन्दगी के अंग हैं
फूल के मानिन्द खिलना सीखिए
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खूशनुमा फिर से बहारें आयेंगी
साफगोई रखके मिलना सीखिए
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प्यार का धागा-सूईं लेकर जरा
चाके-दिल को आप सिलना सीखिए
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दोजहाँ में लोग हैं जालिम बड़े
अश्क को अपने निगलना सीखिए
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चीरती है जो अँधेरा रात का
उस शमा जैसा पिघलना सीखिए
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गैर को अपना बनाने के लिए
प्यार के साँचे में ढलना सीखिए
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हर जगह हैं जाल फैले ‘रूप’ के
काटकर फन्दे निकलना सीखिए
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शुक्रवार, 21 अगस्त 2020
ग़ज़ल "ठोकरें खाकर सँभलना सीखिए" ठोकरें खाकर सँभलना सीखिए
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जी नमस्ते ,
जवाब देंहटाएंआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा शनिवार (२२-०८-२०२०) को 'जयति-जय माँ,भारती' (चर्चा अंक-३८०१) पर भी होगी।
आप भी सादर आमंत्रित है
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अनीता सैनी
बहुत अच्छी ग़ज़ल 💐
जवाब देंहटाएंकृपया मेरी ताज़ा पोस्ट "वर्षा सिंह" ब्लॉग पर देखें। इसमें आपके दोहे का भी उल्लेख है।
http://varshasingh1.blogspot.com/2020/08/blog-post_21.html?m=0
सादर ,
डॉ. वर्षा सिंह
बहुत खूब सर!
जवाब देंहटाएंजिंदगी की राह में बहुत कुछ सीखना, जानना पड़ता है ! उम्दा रचना
जवाब देंहटाएंनया कुछ सीखते हुए ही ज़िन्दगी में आगे बढ़ा जा सकता है.
जवाब देंहटाएंबेहतरीन ग़ज़ल आदरणीय
जवाब देंहटाएं