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जलने
को परवाना आतुर, आशा
के दीप जलाओ तो।
कब
से बैठा
प्यासा चातक, गगरी
से जल छलकाओ तो।।
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मधुवन में महक समाई है, कलियों में यौवन सा छाया,
मस्ती
में दीवाना होकर, भँवरा
उपवन में मँडराया,
मन
झूम रहा होकर व्याकुल, तुम
पंखुरिया फैलाओ तो।
कब
से बैठा
प्यासा चातक, गगरी
से जल छलकाओ तो।।
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मधुमक्खी भीने-भीने स्वर में, सुन्दर राग सुनाती है,
सुन्दर
पंखों वाली तितली भी, आस
लगाए आती है,
सूरज
की किरणें कहती है, कलियों
खुलकर मुस्काओ तो।
कब
से बैठा
प्यासा चातक, गगरी
से जल छलकाओ तो।।
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चाहे मत दो मधु का कणभर, पर आमन्त्रण तो दे दो,
पहचानापन
विस्मृत करके, इक
मौन-निमन्त्रण तो दे दो,
काली
घनघोर घटाओं में, बिजली
बन कर आ जाओ तो।
कब
से बैठा
प्यासा चातक, गगरी
से जल छलकाओ तो।।
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सादर नमस्कार,
जवाब देंहटाएंआपकी प्रविष्टि् की चर्चा शुक्रवार ( 28-08-2020) को "बाँच ली मैंने व्यथा की बिन लिखी पाती नयन में !"
(चर्चा अंक-3807) पर भी होगी। आप भी सादर आमंत्रित है.
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"मीना भारद्वाज"
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जवाब देंहटाएं'पहचानापन विस्मृत करके, इक मौन-निमन्त्रण तो दे दो'... वाह डॉ. मयङ्क! इस सुन्दर, मनमोहक रचना के लिए हार्दिक बधाई!
जवाब देंहटाएंबहुत सुंदर रचना
जवाब देंहटाएंबेहद खूबसूरत रचना आदरणीय
जवाब देंहटाएंबहुत ही सुंदर रचना आदरणीय शास्त्री जी
जवाब देंहटाएंमधुमक्खी भीने-भीने स्वर में, सुन्दर राग सुनाती है,
जवाब देंहटाएंसुन्दर पंखों वाली तितली भी, आस लगाए आती है.. बहुत सुंदर, तुकबंदी के साथ कविताऐं आज भी अपना अलग स्थान रखती हैं... आपकी कवितायें मार्गदर्शक हैं नए कवियों के लिए