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बरगद बौने हो गये, उगने लगे बबूल।
पीपल जामुन-आम को,
लोग रहे हैं भूल।।
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थोड़े से ही रह
गये, धरती पर तालाब।
बगिया में घटने
लगे, गुड़हल और गुलाब।
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धरती बंजर सी हुई,
चिन्ता की है बात।
कैमीकल की खाद से,
विकट हुए हालात।।
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लालच के परिवेश
में, लीची हुई उदास।
नहीं रही अमरूद
में, अब कुदरती मिठास।।
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पाश्चात्य धुन में
हुए, तबला-ढोलक गोल।
कोकिल के भी हो
गये, कागा जैसे बोल।।
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कोरोना की हो रही,
दुनिया में भरमार।
चीन जनित इस रोग
का, नहीं कहीं उपचार।।
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अर्पण-तर्पण बन
गया, मात्र दिखावा आज।
बेमन से होने लगा,
पूजा-वन्दन काज।।
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सोमवार, 24 अगस्त 2020
दोहे "उगने लगे बबूल" (डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
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सपना जो पूरा हुआ! सपने तो व्यक्ति जीवनभर देखता है, कभी खुली आँखों से तो कभी बन्द आँखों से। साहित्य का विद्यार्थी होने के नाते...
सादर नमस्कार ,
जवाब देंहटाएंआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल मंगलवार (25 -8 -2020 ) को "उगने लगे बबूल" (चर्चा अंक-3804) पर भी होगी,आप भी सादर आमंत्रित हैं।
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कामिनी सिन्हा
आदरणीय आपके दोहों के सटीक सृजन से हमलोगों को बहुत कुछ सीखने को मिलता है। आनंद आ गया!--ब्रजेन्द्रनाथ
जवाब देंहटाएंवाह!बहुत खूबसूरत सृजन आदरणीय । सुंदर सीख देते हुए दोहे ।
जवाब देंहटाएंबहुत सुंदर और सटीक दोहे आदरणीय
जवाब देंहटाएंसुंदर. विचार भी बोनसाई की तरह होते जा रहे हैं.
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