निर्धन जनता के हुए, आज हौसले पस्त।। पूरी दुनिया में भले, हो मन्दी का दौर। लेकिन अपने देश में, महँगाई का ठौर।। हा-हाकार मचा हुआ, दुर्लभ मिट्टीतेल। मार रसोईगैस की, लोग रहे हैं झेल।। लाभ कमाती तेल में, भारत की सरकार। भोली जनता झेलती, महँगाई की मार।। सत्ताधारी शान से, सुना रहे फरमान। महँगाई से त्रस्त हैं, निर्धन-श्रमिक-किसान।। सबजी और अनाज के, बढ़े हुए हैं भाव। अब तक भी आया नहीं, कीमत में ठहराव।। अब बिल्ली के गले में, घण्टी बाँधे कौन। आँखें सब कुछ बोलती, अधर हो गये मौन।। मजबूरी में कर रहा, भूखा प्राणायाम। महँगाई पर है नहीं, अब तक लगी लगाम।। जब से आयी देश में, बहुमत की सरकार। महँगाई के सामने, जनता है लाचार।। |
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रविवार, 10 अक्तूबर 2021
दोहे "बढ़े हुए हैं भाव" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
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सुंदर, और बेहद कटाक्षपूर्ण दोहावली आद० सादर नमन🙏
जवाब देंहटाएंनमस्ते,
जवाब देंहटाएंआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा सोमवार (11 -10-2021 ) को 'धान्य से भरपूर, खेतों में झुकी हैं डालियाँ' (चर्चा अंक 4211) पर भी होगी। आप भी सादर आमंत्रित है। रात्रि 12:01 AM के बाद प्रस्तुति ब्लॉग 'चर्चामंच' पर उपलब्ध होगी।
चर्चामंच पर आपकी रचना का लिंक विस्तारिक पाठक वर्ग तक पहुँचाने के उद्देश्य से सम्मिलित किया गया है ताकि साहित्य रसिक पाठकों को अनेक विकल्प मिल सकें तथा साहित्य-सृजन के विभिन्न आयामों से वे सूचित हो सकें।
यदि हमारे द्वारा किए गए इस प्रयास से आपको कोई आपत्ति है तो कृपया संबंधित प्रस्तुति के अंक में अपनी टिप्पणी के ज़रिये या हमारे ब्लॉग पर प्रदर्शित संपर्क फ़ॉर्म के माध्यम से हमें सूचित कीजिएगा ताकि आपकी रचना का लिंक प्रस्तुति से विलोपित किया जा सके।
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
#रवीन्द्र_सिंह_यादव
इन दोहों को पढते ही पहला भाव जाे मन में उभरा, वह था - 'बात मेरी थी, तुमने कही, अच्छा लगाा'। इन्हें तो साझा करना ही पडेगा। फेस बुक पर अभी ही साझा कर रहा हूँ।
जवाब देंहटाएंआज के परिदृष्य पर सार्थक दोहे । यथार्थवादी सृजन ।
जवाब देंहटाएं