-- सारे जग से भिन्न है, अपना भारत देश। रहता बारह मास ही, पर्वों का परिवेश।। पर्व अहोई-अष्टमी, दिन है कितना खास। जिसमें बेटों के लिए, होते हैं उपवास।। दुनिया में दम तोड़ता, मानवता का वेद। बेटा-बेटी में जहाँ, दुनिया करती भेद।। पुरुषप्रधान समाज में, नारी का अपकर्ष। अबला नारी का भला, कैसे हो उत्कर्ष।। बेटा-बेटी के लिए, हों समता के भाव। मिल-जुलकर मझधार से, पार लगाओ नाव।। एक पर्व ऐसा रचो, जो हो पुत्री पर्व। व्रत-पूजन के साथ में, करो स्वयं पर गर्व।। बेटा-बेटी समझ लो, कुल के दीपक आज। बदलो पुरुष प्रधान का, अब तो यहाँ रिवाज।। |
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बुधवार, 27 अक्तूबर 2021
दोहे "पर्वों का परिवेश" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री ‘मयंक’)
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सपना जो पूरा हुआ! सपने तो व्यक्ति जीवनभर देखता है, कभी खुली आँखों से तो कभी बन्द आँखों से। साहित्य का विद्यार्थी होने के नाते...
जी नमस्ते ,
जवाब देंहटाएंआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल गुरुवार(२८-१०-२०२१) को
'एक सौदागर हूँ सपने बेचता हूँ'(चर्चा अंक-४२३०) पर भी होगी।
आप भी सादर आमंत्रित है।
सादर
बहुत सुंदर और सार्थक दोहे।
जवाब देंहटाएंसादर।
एक पर्व ऐसा रचो, जो हो पुत्री पर्व।
जवाब देंहटाएंव्रत-पूजन के साथ में, करो स्वयं पर गर्व।।
वाह!!!
उत्तम भाव
लाजवाब सृजन।
हम भारतीयों की लिंग-भेदी मनोवृत्ति के विरुद्ध बहुत सुन्दर और उपयोगी सन्देश !
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