उथल-पुथल
है वन-उपवन में, अन्धड़ है कैसा आया।। खून-पसीने
से श्रमिकों के, फलते हैं उद्योग यहाँ। निर्धनता
पर जीवन भारी, शिक्षा का उपयोग कहाँ। धनिक-बणिक
धनवान हो गये, परिश्रमी धुनता काया। उथल-पुथल
है वन-उपवन में, अन्धड़ है कैसा आया।। वृक्ष
आज अपने फल खाते, सरिताएँ जल पीती हैं। भोली
मीन फँसी कीचड़ में, मरती हैं ना जीती हैं। आपाधापी
के युग में, जीवन का संकट गहराया। उथल-पुथल
है वन-उपवन में, अन्धड़ है कैसा आया।। मौज
मनाते बाज और भोली चिड़ियाएँ सहमी हैं। घाटी
में दहशतगर्दों की, अब भी गहमा-गहमी हैं। साठ-गाँठ
करके महलों ने, जुल्म झोंपड़ी पर ढाया। उथल-पुथल
है वन-उपवन में, अन्धड़ है कैसा आया।। अन्धे-गूँगे-बहरों
की भर्ती है, लोकतन्त्र के शासन में। भोली
जनता खूब पिस रही, इस जबरन अनुशासन में। जो
देता माया की झप्पी, उसको ही मिलती छाया। उथल-पुथल
है वन-उपवन में, अन्धड़ है कैसा आया।। |
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शुक्रवार, 8 अक्तूबर 2021
गीत "जीवन का संकट गहराया" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
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नये साल की नयी सुबह में, कोयल आयी है घर में। कुहू-कुहू गाने वालों के, चीत्कार पसरा सुर में।। निर्लज-हठी, कुटिल-कौओं ने,...
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कुहरे ने सूरज ढका , थर-थर काँपे देह। पर्वत पर हिमपात है , मैदानों पर मेह।१। -- कल तक छोटे वस्त्र थे , फैशन की थी होड़। लेक...
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सपना जो पूरा हुआ! सपने तो व्यक्ति जीवनभर देखता है, कभी खुली आँखों से तो कभी बन्द आँखों से। साहित्य का विद्यार्थी होने के नाते...
जी नमस्ते ,
जवाब देंहटाएंआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शनिवार(०९-१०-२०२१) को
'अविरल अनुराग'(चर्चा अंक-४२१२) पर भी होगी।
आप भी सादर आमंत्रित है।
सादर
सत्य और सटीक प्रहार आ0
जवाब देंहटाएंसादर अभिवादन
आज की विसंगतियों पर सार्थक गीत।
जवाब देंहटाएंसुंदर आदरणीय।