सुर, नर, मुनि के ज्ञान की, जब ढल जाती धूप। छत्र-सिंहासन के बिना, रंक कहाते भूप।। -- बिना धूप के खेत में, फसल नहीं उग पाय। बारिश-गरमी-शीत को, भुवनभास्कर लाय।। -- शैल शिखर उत्तुंग पर, जब पड़ती है धूप। हिमजल ले सरिता बहें, ले गंगा का रूप।। -- नष्ट करे दुर्गन्ध को, शीलन देय हटाय। पूर्व दिशा के द्वार पर, रोग कभी ना आय।। -- खग-मृग, कोयल-काग को, सुख देती है धूप। उपवन और बसन्त का, यह सवाँरती रूप।। -- गेहूँ उगता ग़ज़ल सा, सरसों करे किलोल। बन्द गले के सूट में, ढकी ढोल की पोल।। -- मौसम आकर्षित करे, हमको अपनी ओर। कनकइया डग-मग करे, होकर भावविभोर।। -- कड़क नहीं माँझा रहा, नाज़ुक सी है डोर। पतंग उड़ाने को चला, बिन बाँधे ही छोर।। -- पत्रक जब पीला हुआ, हरियाली नहीं पाय। जाने कब शाखाओं से, पके पान झड़ जाय।। -- |
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बुधवार, 8 दिसंबर 2021
दोहे "सुख देती है धूप" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
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जी नमस्ते ,
जवाब देंहटाएंआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल गुरुवार(०९-१२ -२०२१) को
'सादर श्रद्धांजलि!'(चर्चा अंक-४२७३) पर भी होगी।
आप भी सादर आमंत्रित है।
सादर
सुंदर प्रकृति वर्णन।
जवाब देंहटाएंवाह!!!
जवाब देंहटाएंबहुत ही लाजवाब एवं अद्भुत दोहे।
खग-मृग, कोयल-काग को, सुख देती है धूप।
जवाब देंहटाएंउपवन और बसन्त का, यह सवाँरती रूप।।
बहुत ही सुन्दर दोहे, सादर नमस्कार सर
बहुत सुन्दर।
जवाब देंहटाएं