बिछा रहा इंसान खुद, पथ में अपने शूल। नूतनता के फेर में, गया पुरातन भूल।। -- हंस समझकर स्वयं को, उड़ते नभ में काग। नीति-रीति को भूलकर, गाते भौंडे राग।। -- नवयुग के इंसान का, दूषित हुआ दिमाग। रंगों के तेजाब से, खेल रहा है फाग।। -- कैसे रीत-रिवाज है, गिरवीं धरा जमीर। सुख देने वाला हुआ, घातक मलय समीर।। -- चिड़ियों को अब लीलते, घात लगाकर बाज। बहू-बेटियों की यहाँ, खतरे में है लाज।। -- कदम-कदम पर भेड़िये, बिछा रहे हैं जाल। सुरा-सुन्दरी देखकर, सिक्के रहे उछाल।। -- नैतिकता की आड़ ले, करें अनैतिक काम। राम-कृष्ण के देश में, मचा हुआ कुहराम।। -- |
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शुक्रवार, 17 दिसंबर 2021
दोहे "घातक मलय समीर" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
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जी नमस्ते ,
जवाब देंहटाएंआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शनिवार(१८-१२ -२०२१) को
'नवजागरण'(चर्चा अंक-४२८२) पर भी होगी।
आप भी सादर आमंत्रित है।
सादर
बेहतरीन दोहे आदरणीय।
जवाब देंहटाएंज्ञानवर्धक, मार्गदर्शक, बेहद खूबसूरत दोहे।
जवाब देंहटाएंसादर नमन।
बहुत सुंदर और सारगर्भित दोहे सर।
जवाब देंहटाएंप्रणाम
सादर।