सब कुछ वही पुराना सा है! कैसे नूतन सृजन करूँ मैं? -- कभी चाँदनी-कभी अँधेरा, लगा रहे सब अपना फेरा, जग झंझावातों का डेरा, असुरों ने मन्दिर को घेरा, देवालय में भीतर जाकर, कैसे अपना भजन करूँ मैं? कैसे नूतन सृजन करूँ मैं? -- वो ही राग-वही है गाना, लाऊँ कहाँ से नया तराना, पथ तो है जाना-पहचाना, लेकिन है खुदगर्ज़ ज़माना, घी-सामग्री-समिधा के बिन, कैसे नियमित यजन करूँ मैं? कैसे नूतन सृजन करूँ मैं? -- बना छलावा पूजन-वन्दन मात्र दिखावा है अभिनन्दन चारों ओर मचा है क्रन्दन, बिखर रहे सामाजिक बन्धन, परिजन ही करते अपमानित, कैसे उनको सुजन करूँ मैं? कैसे नूतन सृजन करूँ मैं? -- गुलशन में पादप लड़ते हैं, कमल सरोवर में सड़ते हैं, कदम नहीं आगे बढ़ते हैं, पावों में कण्टक गड़ते है, पतझड़ की मारी बगिया में, कैसे मन को सुमन करूँ मैं? कैसे नूतन सृजन करूँ मैं? -- |
गुलशन में पादप लड़ते हैं,
जवाब देंहटाएंकमल सरोवर में सड़ते हैं,
कदम नहीं आगे बढ़ते हैं,
पावों में कण्टक गड़ते है,
पतझड़ की मारी बगिया में,
कैसे मन को सुमन करूँ मैं?
अंतस को छूती पंक्तियाँ, आपकी कलम का सास्वत सृजन नमन गुरुदेव
जी नमस्ते ,
जवाब देंहटाएंआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शुक्रवार(१०-१२ -२०२१) को
'सुनो सैनिक'(चर्चा अंक -४२७४) पर भी होगी।
आप भी सादर आमंत्रित है।
सादर
बेहतरीन सृजन
जवाब देंहटाएंबना छलावा पूजन-वन्दन
जवाब देंहटाएंमात्र दिखावा है अभिनन्दन
चारों ओर मचा है क्रन्दन,
बिखर रहे सामाजिक बन्धन,
सार्थक और वास्तविज अभिव्यक्ति! सादर साधुवाद!--ब्रजेंद्रनाथ
बेहतरीन गीत सर।
जवाब देंहटाएंप्रणाम
सादर।
बहुत सुंदर रचना आदरणीय।
जवाब देंहटाएंवाह! अद्भुत !!
जवाब देंहटाएंकैसे मन को सुमन करूं मैं।👏👏
सच्चे मन की सच्ची व्यथा !
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