![]() रोज लिखता हूँ इबारत, मैं नदी के रेत पर शब्द बन जाते ग़ज़ल मेरे नदी के रेत पर जब हवा के तेज झोकों से मचलती हैं लहर मेट देती सब निशां मेरे, नदी के रेत पर चाहिए कोरे सफे, सन्देश लिखने के लिए प्रेरणा मिलती मुझे, आकर नदी के रेत पर हो स्रजन नूतन, हटें मन से पुरानी याद सब निज नवल-उदगार को, रचता नदी के रेत पर “रूप” भाता हैं मुझे फैली हुई बलुआर का इसलिए आता नियम से मैं, नदी के रेत पर |
"उच्चारण" 1996 से समाचारपत्र पंजीयक, भारत सरकार नई-दिल्ली द्वारा पंजीकृत है। यहाँ प्रकाशित किसी भी सामग्री को ब्लॉग स्वामी की अनुमति के बिना किसी भी रूप में प्रयोग करना© कॉपीराइट एक्ट का उलंघन माना जायेगा। मित्रों! आपको जानकर हर्ष होगा कि आप सभी काव्यमनीषियों के लिए छन्दविधा को सीखने और सिखाने के लिए हमने सृजन मंच ऑनलाइन का एक छोटा सा प्रयास किया है। कृपया इस मंच में योगदान करने के लिएRoopchandrashastri@gmail.com पर मेल भेज कर कृतार्थ करें। रूप में आमन्त्रित कर दिया जायेगा। सादर...! और हाँ..एक खुशखबरी और है...आप सबके लिए “आपका ब्लॉग” तैयार है। यहाँ आप अपनी किसी भी विधा की कृति (जैसे- अकविता, संस्मरण, मुक्तक, छन्दबद्धरचना, गीत, ग़ज़ल, शालीनचित्र, यात्रासंस्मरण आदि प्रकाशित कर सकते हैं। बस आपको मुझे मेरे ई-मेल roopchandrashastri@gmail.com पर एक मेल करना होगा। मैं आपको “आपका ब्लॉग” पर लेखक के रूप में आमन्त्रित कर दूँगा। आप मेल स्वीकार कीजिए और अपनी अकविता, संस्मरण, मुक्तक, छन्दबद्धरचना, गीत, ग़ज़ल, शालीनचित्र, यात्रासंस्मरण आदि प्रकाशित कीजिए। |

बहुत सुन्दर..!
जवाब देंहटाएंvaah vaah bahut umda ghazal ....nadi ke ret par.
जवाब देंहटाएंप्रेरित करती बढ़िया रचना ।
जवाब देंहटाएंआभार गुरूजी ।।
रेत नदी की है रखे, पुरखों के पद चिन्ह ।
नव-चिन्हों से वे मगर, लगते इकदम भिन्न ।
लगते इकदम भिन्न, यहाँ श्रद्धा ना दीखे ।
खुदगर्जी संलिप्त, युवा मस्ती में चीखे ।
उनको नहीं मलाल, समस्या इसी सदी की ।
पर्यावरण बिगाड़, बिगाड़े रेत नदी की ।।
आपकी लेखनी को बार बबार सलाम.
जवाब देंहटाएंरोज लिखता हूँ इबारत, मैं नदी के रेत पर
जवाब देंहटाएंचार पल में शब्द मिट जाते, नदी के रेत पर........
कोमल भावो की अभिवयक्ति..
कोमल भावो की शुषमा लालित्य लिये आकर्षक है आभार सर /
जवाब देंहटाएंमनभावन सुंदर प्रस्तुति,
जवाब देंहटाएंMY RECENT POST...काव्यान्जलि ...:गजल...
बहुत ही खूबसूरत भाव...उतनी ही खूबसूरत ग़ज़ल...
जवाब देंहटाएं“रूप” भाता हैं मुझे फैली हुई बलुआर का
जवाब देंहटाएंइसलिए आता नियम से मैं, नदी के रेत पर
रोज़ आता हूँ नदी की रेत पे, छोड़ के उनके निशाँ .......
भावनाओं को कुरेदती प्रगाढ़ अनुभूतियों को उद्वेलित करती रचना .
चाहिए कोरे सफे, सन्देश लिखने के लिए
जवाब देंहटाएंप्रेरणा मिलती मुझे, आकर नदी के रेत पर
वाह ...बहुत सुंदर गजल ... रेत तो वैसे भी मेरा प्रिय विषय है ...
चाहिए कोरे सफे, सन्देश लिखने के लिए
जवाब देंहटाएंप्रेरणा मिलती मुझे, आकर नदी के रेत परbahut achchi lagi......
रेत के कण हमारी निस्सारता का बोध कराते हैं।
जवाब देंहटाएं:)
जवाब देंहटाएंवाह क्या खूबसूरत भाव उकेरे हैं।
जवाब देंहटाएंआता नियम से मैं, नदी के रेत पर................बहुत ही खूबसूरत..
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर , बधाई !
जवाब देंहटाएंचाहिए कोरे सफे, सन्देश लिखने के लिए
जवाब देंहटाएंप्रेरणा मिलती मुझे, आकर नदी के रेत पर
एक बेहतरीन ग़ज़ल शास्त्री जी। बहुत आनंद आया पढ़कर।
बहुत सुंदर भावों से युक्त रचना.....
जवाब देंहटाएंसर यदि नदी "की" रेत पर कहें तो????
रेत स्त्रीलिंग शब्द है तो "की" ज्यादा मधुर ना लगेगा???
सर क्षमा करें..अन्यथा ना लें.
सादर.
अनु
बहुत सुन्दर वाह!
जवाब देंहटाएंआपकी यह ख़ूबसूरत प्रविष्टि कल दिनांक 23-04-2012 को सोमवारीय चर्चामंच-858 पर लिंक की जा रही है। सादर सूचनार्थ
bahut khubasurat rachana..
जवाब देंहटाएंbadhiya geet ... aapke geet man ko chhu jate hain.
जवाब देंहटाएंवाह बहुत बढ़िया प्रस्तुति ....
जवाब देंहटाएंबहुत ही सुन्दर रचना के लिए हार्दिक बधाई शास्त्री जी |
जवाब देंहटाएंआशा
शब्द बन जाते ग़ज़ल मेरे नदी के रेत पर
जवाब देंहटाएंबहुत खूब
वाह बेहद खूबसूरत गज़ल ...
जवाब देंहटाएं