लोगो को राहत पहँचाता।। लू के गरम थपेड़े खाकर, अमलतास खिलता-मुस्काता।। डाली-डाली पर हैं पहने झूमर से सोने के गहने, पीले फूलों के गजरों का, रूप सभी के मन को भाता। लू के गरम थपेड़े खाकर, अमलतास खिलता-मुस्काता।। दूभर हो जाता है जीना, तन से बहता बहुत पसीना, शीतल छाया में सुस्ताने, पथिक तुम्हारे नीचे आता। लू के गरम थपेड़े खाकर, अमलतास खिलता-मुस्काता।। स्टेशन पर सड़क किनारे, तन पर पीताम्बर को धारे, दुख सहकर, सुख बाँटो सबको, सीख सभी को यह सिखलाता। लू के गरम थपेड़े खाकर, अमलतास खिलता-मुस्काता।। |
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सोमवार, 4 जून 2012
"अमलतास खिलता-मुस्काता" (1350वीं पोस्ट)
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बहुत सुन्दर प्रस्तुति. अमलतास के अपार औषधीय गुन भी है.
जवाब देंहटाएंलाजवाब............
जवाब देंहटाएंबहुत भावमयी अभिव्यक्ति....
जवाब देंहटाएंपीले अमलतास और नीली ट्रेन..
जवाब देंहटाएंजितनी सुन्दर तस्वीर उससे भी सुन्दर ये कविता
जवाब देंहटाएंइस भीषण गरमी में सारा शहर धू-धू कर जल रहा है, पर अपने घर की बालकनी से रोज़ खिले-मुस्कुराते अमलतास को लहलहाते देख कर कोई कविता रचने की ख़्वाहिश बलवती होती रहती थी। आज आपकी इस कविता को पढ़कर तमना पूरी हुई।
जवाब देंहटाएंbahot sunder.
जवाब देंहटाएंबहुत सुंदर
जवाब देंहटाएंस्टेशन पर सड़क किनारे,
जवाब देंहटाएंतन पर पीताम्बर को धारे... वाह! सुन्दर प्रयोग....
सुन्दर गीत सर....
सादर.