बहुत मुश्किल जुटाना है, यहाँ दो जून की रोटी।। नहीं ईंधन मयस्सर है, हुई है गैस भी महँगी, पकेगी किस तरह बोलो, यहाँ दो जून की रोटी। बहुत ऊँचे हुए हैं भाव, अब तो दाल-आटे के, गरीबी में हुई भारी, यहाँ दो जून की रोटी। अज़ब अन्धेर नगरी है, टके की कुछ नहीं कीमत, हुई है जान से महँगी, यहाँ दो जून की रोटी। लगा है “रूप” का मेला, मुखौटों की नुमायश है, मिली अस्मत के बदले में, यहाँ दो जून की रोटी। |
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सब बेहाल,
जवाब देंहटाएंबीते साल..
मिली अस्मत के बदले में, यहाँ दो जून की रोटी।
जवाब देंहटाएंबढ़िया प्रस्तुति,सुंदर रचना,,,,,
RESENT POST ,,,, फुहार....: प्यार हो गया है ,,,,,,
सटीक रचना..
जवाब देंहटाएंअब तो जिन्दगी बस दो जून की रोटियों में ही सिमट कर रह गयी है,
जवाब देंहटाएंकहाँ से काटें , कहाँ से लाये, जिन्दगी को चलाने के लिए रकम मोटी मोटी.
सामयिक रचना है ...बिल्कुल सही कहा है आपने...
जवाब देंहटाएंदो जून को भेजी (पोस्ट की) गई यह दो जून की रोटी बहुत पसंद आई।
जवाब देंहटाएंलगा है “रूप” का मेला, मुखौटों की नुमायश है,
जवाब देंहटाएंमिली अस्मत के बदले में, यहाँ दो जून की रोटी।
बहूत हि सही बात कही है आपने...
सार्थक सुंदर रचना....
ekdam samyik....seedhee baat.
जवाब देंहटाएंआज के दौर की विवशता का सटीक बयान
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर ग़ज़ल सर
सुंदर!
जवाब देंहटाएंबहुत ऊँचे हुए हैं भाव, अब तो दाल-आटे के,
जवाब देंहटाएंगरीबी में हुई भारी, यहाँ दो जून की रोटी ..
सच कहा है शास्त्री जी ... इस दो जून की रोटी कों आज कितने तरसते हैं ...
हल बदहाल.ज़िन्दगी बेहाल,
जवाब देंहटाएंदो जून रोटी भी मिल जाये तो
ज़िन्दगी हो जाये निहाल,
सत्य को बताती,घाव को सहलाती ,सुन्दर अभिव्यक्ति
चांद-तारे तो दिखा दिये,दो जून रोटी ने,
जवाब देंहटाएंदेखिये,आगे-आगे होता है क्या?